Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 62
________________ ९. सप्तपर्ण पुष्य उस कालखंड में स्वस्थ, उदार, नीतिमान् और प्रामाणिक बनाने वाले ज्ञानाभ्यास को महत्त्व दिया जाता था और उसे जीवन का आवश्यक अंग माना जाता था। मानव-मन की जड़ता को मिटाने के लिए ज्ञान-चेतना ही एकमात्र साधन थी। इसलिए राष्ट्र का प्रत्येक वर्ग, फिर चाहे वह ब्राह्मण वर्ग हो या शूद्र वर्ग–अपने जीवन को उपयोगी बनाने के लिए तदनुकूल अभ्यास करता था। ब्राह्मण सर्वशास्त्रों में पारंगत होते थे। क्षत्रियवर्ग राजनीति, संगीत, कला और शस्त्र-संचालन तथा उसकी सहायक विद्याओं में निष्णात होते। वैश्यवर्ग कृषि, गो-पालन, वाणिज्य, अर्थशास्त्र आदि का अभ्यास करते। शूद्र भी कृषि, गो-पालन, सदाचार, पाकशास्त्र आदि का अभ्यास करते। चारों वर्ण केवल कर्त्तव्य-क्षेत्र से पहचाने जाते....... चारों वर्गों के मध्य उच्च-नीच का प्रभेद नहीं था। तरंगलोला जब कलाचार्य की पाठशाला में प्रविष्ट हुई तब उसी नगरी के सार्थवाह का नौ वर्षीय पुत्र पद्मदेव भी वहीं अभ्यास करता था और शताधिक विद्यार्थियों में श्रेष्ठ और गुणवान् माना जाता था। ___ पाठशाला में गरीब और धनवान् विद्यार्थियों के लिए पृथक् बैठने या शिक्षा पाने की व्यवस्था नहीं थी। गुरु सबको समदृष्टि से देखते और सभी को समान रूप से ज्ञान का अभ्यास कराते। उसमें पक्षपात नहीं रहता। विद्यादान को महत्त्वपूर्ण माना जाता था और जो विद्यादान देता वह महान् पुण्य का उपार्जन करता है, यह दृष्टि स्पष्ट थी। जब तरंगलोला सात वर्ष की हुई तब जीवन में एक विक्षेप उभरा। वह जल-तरंगों को देखकर, सरोवर या तालाब को देखकर चौंक उठती। वह क्यों चौंकती है, इसका कारण किसी को ज्ञात नहीं हो सका...' स्वयं तो केवल सात वर्ष की बालिका थी, अत: कुछ कारण बता नहीं पा रही थी..... परन्तु जब वर्षा होती और किसी स्थल पर जल एकत्रित हो जाता, उसमें तरंगें उठतीं तो तरंगलोला उसको स्थिरदृष्टि से देखती रहती और चौंक कर गंभीर बन जाती....... किसी विस्मृति के बादल की ओट में छिप जाती। पुत्री की इस स्थिति से चिन्तित होकर माता-पिता ने उसे पाठशाला भेजना बंद कर दिया। परन्तु घर पर अभ्यास चालू रखा... योग्य कलाचार्य घर पर आकर अभ्यास कराने लगे। पद्मदेव और तरंगलोला–दोनों एक-दूसरे से परिचित हों, उससे पूर्व ही यह स्थिति बन गई। ६० / पूर्वभव का अनुराग

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