________________
एक समय था जब नदियां भी देवत्व का रूप धारण कर आराधकों की मनोभावना पूर्ण करती थीं। जहां तीव्र भावना, श्रद्धा और समर्पण होता है, पवित्रता होती है, वहां आत्मसिद्धि के आने में विलंब नहीं होता, तो फिर भौतिकसिद्धि की तो बात ही क्या है ?
नब्बेवां दिन था।
बातों ही बातों में नवासी दिन बीत गए । आज तीसरे महीने का अंतिम दिन था दोनों की आराधना विधिवत् और विशुद्ध थी दोनों एक ही खंड में जमीन पर चटाई बिछाकर दूर-दूर सो जाते आचाम्ल तप चल ही रहा था और उससे मनोविकार स्वतः शान्त हो गया था और नींद भी स्वस्थ और गहरी
आने लगी थी।
इसके साथ दोनों की दैनिक आराधना, पूजा-पाठ, प्रतिक्रमण आदि भी यथावत् चलते थे।
रात्रि का
आज आराधना की अंतिम रात्रि थी नब्बेवीं रात्रि थी चौथा प्रहर प्रांरभ होते ही सुनंदा को एक सुखद स्वप्न आया उसने देखा, वह एक रमणीय उपवन में खड़ी है अनेक कुंजों में छिप गई हैं, इसलिए वह उन्हें चारों ओर खोज रही है में ही वह उत्कर्ण हुई उसने तरंगमालाओं की गंभीर, मधुर आवाज सुनी
स्वयं की सखियां
इ
अरे, इस उपवन ऐसी ध्वनि कहां से T तत्काल उसकी घ्राणेन्द्रिय चौंकी मलयाचल के पवन को स्पर्शवाली अति शीतल, मधुर और भीनी सौरभ कहां से आई अरे! यह क्या? इस उपवन के आसपास कोई जलाशय तो दृष्टिगत नहीं होता तो फिर यह कैसे ? इतने में ही यमुना नदी का शांत, धीर, गंभीर और श्यामल प्रवाह दिखाई दिया सुनंदा चौंक तरंगलोला यमुना पर एक सहस्रदल वाला कमल तैर
रहा था
उसके शरीर पर जो दिव्य अलंकार फीका कर रही थी।
सुनंदा
उस कमल पर चार भुजा वाली एक तेजोदीप्त देवी खड़ी थी. देवी के गले में रक्तकमल की माला थी थे उनकी जगमगाहट सूर्य के प्रकाश को भी आश्चर्यभरे नयनों से देवी को देख रही थी देवी ने सुनंदा को आशीर्वाद देते हुए कहा - 'सुनंदा ! तेरी और तेरे पति की आराधना से मैं प्रसन्न हूं" कल प्रातः तीन घटिका के पश्चात् व्रत की पूर्णाहुति करना " तेरी इच्छा पूरी होगी । '
उसने नमन किया
कितनी मधुर वाणी !
देवी अदृश्य हो गई"
न उपवन था और न थी तरंगवती यमुना । सुनंदा चटाई से उठी मन में नमस्कार महामंत्र का स्मरण किया प्रात: काल होने वाला था। उसने पति को जगाया और उन्हें स्वप्न की बात बताई। ऋषभसेन
५८ / पूर्वभव का अनुराग