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तो फिर तिर्यंच का तो कहना ही क्या?
सुदंत के नयन सजल हो गए। वह निकट आया तब भयभीत होकर चकवी क्री..... क्रीं..."क्री करती हुई ऊपर उड़ कर चक्कर लगाने लगी।
सुदंत ने चक्रवाक के शरीर से बाण खींच लिया... उस पर जल छिड़का...... परन्तु प्राण तो कभी के उड़ चले थे। सुदंत विक्षिप्त-सा हो गया। उसे न हाथी, न दंतशूल, न वासरी और न वनप्रदेश की स्मृति थी.. उसका हृदय पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा था। उसने सोचा, मैंने अक्षम्य अपराध किया है। इसका बदला मैं चक्रवाकी को किसी भी उपाय से दे नहीं सकता। ...... मैं इसको आश्वासन भी नहीं दे सकता....... न मैं इसकी भाषा जानता हूं और न यह मेरी भाषा जानती है...... तो अब क्या करना चाहिए? ओह....मुझे इस पक्षी का अग्नि संस्कार तो कर ही देना चाहिए.... इतनी सहानुभूति से भी मेरा अपराध हल्का नहीं होगा, परन्तु मैं कहूं भी तो क्या?
ऐसा सोच वह उठा।
चक्रवाकी ऊपर चक्कर लगा रही थी..... अपने स्वामी से एक पल के लिए भी अलग न रहने वाली चक्रवाकी अत्यंत व्यथित दीख रही थी।
सुदंत ने कुछ लकड़ियां एकत्रित की। पारधी को आते देख चक्रवाकी प्रियतम की काया से अलग होकर उड़ने लगी। सुदंत ने लकड़ियां नीचे रखीं और चक्रवाकी की ओर देखकर कहा-बहिन! मेरे हाथों बड़ा अन्याय हुआ है...मैंने कभी अपना निशाना नहीं चूका..... आज ही मेरे गर्व का खंडन हुआ है..... साथ ही साथ मेरे इन निर्दयी हाथों ने तेरे साथी को मार डाला है.....बहिन! मैं क्षमा मांगने योग्य भी नहीं रहा....... तू घबरा मत...... शांत हो जा...... तेरे प्रियतम की काया वनपशुओं द्वारा कुचली न जाए इसलिए मैं इसका अग्नि संस्कार कर देता हूं..... तू शांत हो जा, बहिन! तू शांत रह... इतना कहकर सुदंत ने छोटी-सी चिता बनाई....... चक्रवाक की काया को शुद्ध कर चिता पर रखी और उसके ऊपर छोटी-छोटी लकड़ियां चिन दी।
चक्रवाकी यह सब देखकर अत्यंत करुण कलरव करने लगी। वह बार-बार नीचे आती और पुनः उड़ जाती। लग रहा था कि वह सब कुछ भूल कर पगला गई हो।
प्रिय का विरह अत्यंत दु:खदायी होता है।
सुदंत ने चकमक पत्थर से अग्नि पैदा कर चिता सुलगाई। चिता धीरे-धीरे प्रज्वलित हुई. वह सुलग उठी।
सुदंत अन्यमनस्क होकर एक वृक्ष के नीचे उदास होकर बैठ गया।
चारों ओर से चिता जल उठी....... अरे! चक्रवाकी अभी तक चक्कर लगा रही है? सुदंत ने चक्रवाकी की ओर देखकर कहा-'अब तू अपने निवास की ओर ३० / पूर्वभव का अनुराग