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'बहुत उत्तम.....' रुद्रयश ने कहा। फिर वह उठकर बोला-'पिताजी! कुछ कार्य है?'
'क्या तू बाहर जा रहा है?' 'नहीं, कोई कार्य हो तो यहां रुकू', अन्यथा मेरे कमरे में....
'अच्छा तू जा..... कोई कार्य नहीं है।' महापंडित ने कहा। रुद्रयश पुनः सबको नमन कर चला गया। _ 'अतिथि यहां पन्द्रह दिन रुकेंगे। ओह! नीलमणी को लूटने की योजना...... ओह!' मन में ऐसे विचार कर वह अपने कमरे में जाकर विश्राम करने बैठा।
रात्रि का पहला प्रहर बीत गया। तत्काल रुद्रयश अपने कमरे के वातायन के मार्ग से सहजरूप में छिटक कर चला गया।
रविवार को ही केशव का सौभाग्यपुर से सही संदेश आ गया-'नीलमणी सोमवार के प्रात:काल सूर्योदय के समय प्रस्थान करेगी और कदंबघाट पर सायंकालीन भोजन से निवृत्त होकर रात्रि के दूसरे प्रहर में वहां से रवाना होगी। मैं पश्चिम रात्रि में रवाना होकर कदंबघाट पर पहुंच जाऊंगा... तुम सब तैयार रहना।'
इन समाचारों से रुद्रयश की टोली आनन्दमग्न हो गई। काना नाविक का बजरा-कमरेदार बड़ी नौका को पहले से ही इन्होंने तय कर लिया था। और सोमवार के सूर्योदय के पश्चात् बारह साथी कदंबघाट की ओर प्रस्थित हो गए।
___रुद्रयश ने एक दिन पूर्व ही यात्रा का बहाना बना कर पिताजी से आज्ञा प्राप्त कर ली थी। महापंडितजी का मन नहीं था, फिर भी पंडितों के बीच रुद्रयश ने आज्ञा मांगी थी, इसलिए उन्होंने आज्ञा दे दी।
कच्ची बुद्धि की योजनाएं बहुधा संकट में डाल देती हैं।
सौभाग्यपुर के महाराजा ने नर्तकी नीलमणी की नृत्यकला पर मुग्ध होकर उसका बहुत सम्मान किया और जलमार्ग निर्भय होने पर भी महाराजा ने एक अन्य नौका द्वारा दस सशस्त्र सैनिक रक्षकों को साथ भेजा। किन्तु यह व्यवस्था केशव ज्ञात नहीं कर पाया और वह कदंबघाट पर पहुंचने के लिए पश्चिम रात्रि में रवाना हो चुका था।
रुद्रयश मध्याह्न से पूर्व ही कदम्बघाट पहुंच गया। प्रवास की मौज-मस्ती के लिए मद्यभांड और मिठाइयों से भरे पात्र साथ में ही थे।
कदंबघाट से कदंब ग्राम लगभग एक कोस दूर था.. परन्तु घाट पर एक सुंदर पांथशाला थी.....' रुद्रयश ने पांथशाला में रुकना उचित नहीं माना और पांथशाला में नीलमणी के लोग रसोई बनाने आ पहुंचे थे। नीलमणी का वह विद्रोही दास भी आ गया था। वह रुद्रयश को एकान्त में मिला और बोला-'तुम सब अपनी नौका में ही रहना और नौका को दूर रखना। देवी नीलमणी यहां आ
पूर्वभव का अनुराग / ४५