Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 31
________________ अपने पति चक्रवाक को धरती पर गिरते देखकर चक्रवाकी, जो कुछ ऊपर उड़ रही थी, वह तत्काल तीर की भांति नीचे उतरी कमलपत्र की भांति टूट कर धरती पर पड़ी थी शरीर में रह गया था रक्त बह रहा था रक्त अशोक पुष्प की भांति लग रहा था यह दशा देखकर चक्रवाकी असह्य मनोव्यथा के कारण वहीं मूर्च्छित होकर गिर पति की पांख टूटे हुए सुदंत का बाण चक्रवाक के रक्त से सना चक्रवाक का शरीर अपने प्रियतम की, प्राणाधार की पड़ी 1 और सुदंत ? वह जड़वत् खड़ा था। कभी उसका निशाना चूका नहीं आज ऐसा कैसे हो गया ? एक निर्दोष पंछी का वध कैसे हो गया? उसे यह भी भान नहीं रहा कि गजराज भाग कर वनप्रदेश में चला गया है। वह स्थिर दृष्टि से चक्रवाक को ही देख रहा था। जैसे ही चक्रवाकी मूर्च्छित हुई तत्काल सुदंत के हृदय पर व्रजाघातसा हुआ और वह किंकर्तव्यविमूढ़ होकर बूतवत् खड़ा रह गया। ओह! अब क्या करूं? हाथी को बींधने के लिए छोड़ा गया बाण एक निरपराधी पक्षी को लगा वह बच पाना असंभव है अरे, एक दंपती के स्नेहमय जीवन का मेरे द्वारा अन्त हुआ" अब क्या करूं? सुदंत के मन में ऐसे विचार उमड़ रहे थे। अभी भी उसकी दृष्टि चक्रवाक की ओर ही थी । मूर्च्छित चक्रवाकी सचेत हुई और अपने प्रियतम की काया पर लुठने लगी उसने अपनी चोंच से प्रियतम के शरीर से बाण खींचने का प्रयत्न किया परन्तु वह बाण कैसे निकले ? चक्रवाकी ने अपनी चोंच प्रियतम के चोंच में डाली, मानो वह उसे जागृत करने का प्रयत्न कर रही हो । सुदंत ने मन ही मन अरे रे ! यह तो काया की चिरनिद्रा है' जब काया का हंस उड़ जाता है तब काया का एक रोआं भी प्रकंपित नहीं होता । चक्रवाकी अपनी चोंच में थोड़ा-सा पानी निश्चेष्ट काया पर बूंद-बूंद कर डालने लगी स्पंदन नहीं यह सत्य बेचारी चक्रवाकी कहां से समझे ! कहा ले आई और चक्रवाक की परन्तु जड़ काया" कोई और चक्रवाकी अपनी निष्फलता को देख करुण क्रन्दन करने लगी और प्रियतम की काया पर सिर पटकने लगी। सुदंत का शरीर कांप उठा, मन व्यथित हो गया । वह एक अपराधी की भांति पैरों से करुण क्रन्दन करनेवाली चक्रवाकी की ओर चला। रही है सुदंत ने देखा, चक्रवाकी अपनी पांखों से प्रियतम के शरीर पर हवा डाल ओह ! पक्षिणी! ओह ! पक्षिणी! तेरा साथी तो कभी का उड़ चला अनन्त वेग से वह उड़ गया है। किन्तु एक तिर्यंच इस सत्य को कैसे जाने ? अरे! मनुष्य भी अपने प्रिय के विरह पर सिर पटक-पटक कर मर जाता है है पूर्वभव का अनुराग / २९

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