Book Title: Purvbhav Ka Anurag
Author(s): Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 26
________________ वनखंड के स्थान पर पहुंचे तो तब चांदनी अत्यधिक मधुर हो चुकी थी। एक विशाल वृक्ष की मजबूत शाखा पर लटकता हुआ एक झूला स्पष्ट दिखाई दे रहा था। 'कितना सुंदर स्थान मैंने पसंद किया है?' सुदंत ने वासरी की ओर देखकर कहा। 'बाघ भी आ जाए तो पता न लगे, ऐसा स्थान!' 'बाघ से मुझे तनिक भी भय नहीं है. मुझे तो भय है ।' 'क्यों, किसका भय?' 'मेरी इस बाघिन का..।' सुंदर वनराजि ..... मधुर और स्निग्ध चांदनी... मध्यरात्रि की मीठी नीरवता! दो युवा हृदय एक-दूसरे की धड़कन में एकाकार हो गए थे। सुदंत बोला-वासरी! पहले झूले पर बैठना है अथवा इस कटोरदान को खोलना है ?' 'झले पर'.... वासरी ने कहा। दोनों झूले के पास गए। सुदंत बोला-'तू बैठ, मैं झूला झुलाऊंगा।' 'नहीं, तुम बैठो..... मैं झुलाऊंगी' वासरी ने कहा। धनुष-बाण और कटोरदान को भूमि पर रख सुदंत झूले पर बैठ गया। वासरी ने झुलाना प्रारंभ किया। इतने में ही सुदंत ने वासरी को पकड़ कर अपने अंक में बिठा दिया। दोनों झूलने लगे। वासरी बोली-'मुझे झुलाने दो।' परन्तु प्रियतम की पकड़ से प्रियतमा छिटक नहीं सकी। झूला आकाश को छूने लगा। चन्द्रकिरणों की रूपहरी जाली कोई अनोखा रूप दिखा रही थी। और पल्लवों के बीच से झांकता हुआ चांद देख रहा था कि दो युवा हृदय रसविभोर हो रहे हैं। एक-दूसरे का अस्तित्व एक-दूसरे में समा रहा था। कोई भी 'योग' लगन और मस्ती के बिना फलित नहीं होता..... फिर वह चाहे कामयोग हो या निष्कामयोग। यौवन का क्षणभंगुर आनन्द भी उसी समय प्राप्त होता है जब परस्पर तल्लीन होने का भाव हृदय में जागृत होता है। ____ तो फिर आत्मकल्याण के अनन्त आनन्द का अनुभव करने के लिए प्रगाढ़ तल्लीनता हो तो उसमें आश्चर्य ही क्या है? । अर्ध घटिका के बाद सुदंत झूले से नीचे उतरा और वासरी को झूले पर बिठा, झूला झूलाने लगा। वासरी पवनकुमारी की भांति आकाश में झूलने लगी। २४ / पूर्वभव का अनुराग

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