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प्रश्रोत्तररत्नमाळा
जो सम्पूर्ण अतिशयवंत होते हुए भी अमृत तुल्य वचनों से भव्य जनों के त्रिविध ( मन, वचन और काया सम्बन्धी) ताप को उपशान्त करते हैं ।
२. दया मूल शुचि धर्म सोभागी-किसी को कोई भी अनि-अहित मन, वचन और काया से नहीं करनेरूप और सबों का ऐकान्त हित करनेरूप सर्व जीवों को सुखदायी प्रिय निपुण दया का तत्व जिन में समाया हुआ है ऐसा अहिंसा संयम और तप लक्षण सच्चा धर्म है।
३. हित उपदेश गुरु सुसाध, जे धारत गुण अगम अगाधज्ञान, वैराग्य, क्षमा, मृदुता, ऋजुतादिक अनेक भले गुणों को स्वयं सेवन करते हुए भी जो भव्य जनों के लिये उनके योग्यतानुसार हितोपदेश देने में तत्पर रहेनेवाले ऐसे सुसाधु निग्रंथ पुरुष गुरुपद के योग्य हैं।
४. उदासीनता सुख जगमांहि-संसार में जीवों की भिन्न भिन्न कर्मों के अनुसार जो विचित्रत्ता प्रतीत होती है, उनमें लिप्त न होकर ज्ञानदृष्टि द्वारा उनसे परे रह कर स्वस्वरूप में स्थित रहना अर्थात् निज कर्तव्यरूप चारित्र में रमणता करना इसी में सच्चे सुख का समावेश है। संसार में दृष्टिगोचर होनेवाली खोटी मायिक वस्तुओं में कर्तत्व अभिमान कर उनमें लिप्त होजानेवाले जीव ऐसे सुख से बेनसीब ही रहते हैं।
५. जन्म मरण सम दुःख कोई नांही-महादुर्गधमय पाखाने में किसी को बिठाने पर अथवा किसी को अन्यायपूर्वक कैदखाने में डाल देने पर जो दुःख उसे होता है उससे
भी बेसुमार दुःख जीव को गर्भावासमें होता हैं; क्योंकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com