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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
इन तीनों के संग्रहरूप जो कर्म के प्रदेश का संवय होता है वह प्रदेशबन्ध । ये कर्मबन्ध शुभ तथा अशुभ दोनों प्रकार के हो सकते हैं । इसका विशेष अधिकार कर्मग्रन्थादिक से जाना जा सकता है। यह शुभ बन्ध भी स्वर्ण की बेड़ी के सदृश
और अशुभ बन्ध लोहे की बेड़ी के सदृश है। इन दोनों प्रकार के बन्धों को भारभूत-दुःख दाई समझकर मुनुक्षु को त्याग करने योग्य हैं ।
२१. बंध अभाव ते मोक्ष अनूप-मिथ्यात्व, अविरति कषाय, योग प्रमुख कषाय के सामान्य हेतु हैं और इनके विशेष हेतु भी कर्मग्रन्थ में बतलाये गये हैं। उनका लक्ष्य रखकर उन बन्ध हेतुओं से बचते रहने से प्रात्मा अनुकम से अनुपम ऐसे मोक्षसुख का अधिकारी हो सकता है । राग-द्वेष प्रमुख भावकर्म हैं अर्थात् ये कर्मवन्ध को बहुत पुष्टता करते रहते हैं। इससे आत्मा स्वस्वरूप से च्यूत-भ्रष्ट होकर परभाव में ही खुब ालत रहती है और ऐसा करने से संसारसंतति की वृद्धि होती रहती हैं । वट के बीज के समान उनका अन्त नहीं आ सकता है, परन्तु यदि राग-द्वेष प्रमुख पोषक पदार्थ नहीं मिले तो उसका तुरन्त हो अंत होजाता है। इसलिये तत्त्वज्ञानी अध्यात्मी पुरुष राग-द्वेषादि को हो निर्मल करने का प्रयत्न करते हैं।
२२. परपरिणति ममतादिक हेय-अपनी आत्मा को अच्छी तरह से पहचान लेना और उसमें जो अनन्त शकि सामर्थ्य समाया हुआ है उसकी जितनी दृढ प्रतीति हो ऐसे सर्वज्ञ वचन या वीतराग भगवान् की परम तत्त्वबोधक प्रतिमा का अन्तर लक्ष्य से आलम्बन लेना और उसमें ही अर्थात् स्वस्वरूप में हो रमण करना ऐसी प्रवृति आत्मा को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com