Book Title: Prashnottarmala
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Vardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 177
________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा :: ७६:: समुद्र का तैरना सुलभ हो जाता है। इस संसार में स्पर्धा, द्वेष, ईर्षा और मोह के वश हो कर रण-संग्राम आदि में अपने भुजाओं को अजमानेवाले तो अनेकों प्राणि होते हैं किन्तु पूर्वोक्त दोषसमूह का नाश कर पवित्र रत्न की प्राप्ति में स्ववीर्य का उपयोग करनेवाले तो कोई विरले ही नररत्न देखे जाते हैं और यह ही सच्चा भुजाबल शोभाकारी एवं प्रशंसनीय है। आत्मार्थो जनों को अपने भुजबल का सदुपयोग करना आवश्यक हैं। १०. निर्मल नवपद ध्यान धरीजे, हृदय शोभा इण विध नित कीजे-हृदय विवेकका स्थान है। जो इस हृदय का सदुपयोग करना जानते हैं उन्हीं में सदविवेक जागृत होता है और उसीसे वे हिताहित का निश्चय कर अहित का त्याग कर हित ही में प्रवृत्ति करते हैं । जब मोहवश जगत असत् प्रवृति पसन्द करता है तब विवेकी हृदय सत् प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति ही पसन्द करता है। वह सत् प्रवृत्ति को भी निवृत्ति के लिये ही ग्रहण करता है। निवृत्ति में ही सच्चा सुख, शान्ति या समाधि को स्वाधीन करली है ऐसे अरिहंतादिक नवपद् का विवेकवंत निज हृदय में अपूर्व शान्ति का साक्षात् अनुभव करने के लिये एकाग्ररूप से चितवनरूप ध्यान करते हैं और दृढ अभ्यास द्वारा अरिहंतादिक निर्मल नवपद में लयलीन होकर आत्मा की अपूर्व शान्ति का साक्षात् अनुभव कर सकते हैं । हृदयकमल ध्यान करने निमित्त एक निर्मित स्थान है, उसमें अरिहतादिक ध्येय का विवेकपूर्वक ध्यान करने से अनुक्रम से दृढ अभ्यास द्वारा उस ध्यान की सिद्धि हो जाती है। अर्थात् ध्याता, ध्येय और ध्यान का भेदभाव मिटकर उसमें से समरसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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