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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
पुरुष के शरीर में से निकले दुर्गंधित पदार्थों से हो सकती हैं । एक अन्न का कवल तक अल्पकाल में सड़ जाता हैं तो जिसमें प्रतिदिन अन्न प्रक्षेपन हो उस शरीर का तो कहना हो क्या ? यह बात मल्लीकुमारीने अपने पूर्वभव के मित्र राजाओं को प्रतिबोध देने के लिये युक्तिपूर्वक सिद्ध कर बताई है और हम हमारे स्वानुभव से जान सकते है कि प्रथम तो यह शरीर अशुचि से ही उत्पन्न हुआ है। पिता का वीर्य और माता का रुधिर इन दोनों का जब मिश्रण होता है तब इस शरीर की उत्पत्ति होती है । पश्चात् भी इस शरीर का माता द्वारा भक्षण किये रस बनाये प्रौर अशुविरूप पदार्थो से ही प्रतिदिन पोषण होता है । इस प्रकार अशुचि से उत्पन्न हुए प्रशुचि से बढे हुए और पवित्र वस्तु को भी अपवित्र कर देनेवाले अशाचमय देह को जलप्रमुख से शुद्ध करना चाहिये ऐसा झुठा भ्रम केवल मूढ पुरुष को ही होता है । तत्वज्ञ को ऐसा भ्रम कभी होता ही नहीं है । इस प्रशुचिरूप देह में कर्मवशात् व्याप्त चेतनरत्न युक्ति से निकाल कर समता रस से धोकर साफ कर लेना उचित है । कहा भी है कि जो समतारस के कुंड में स्नान कर पापरूपी मल को धोकर फिर मलिनता को प्राप्त नहीं होते वह अन्तरात्मा परम पवित्र है । इस अशुचिमय देह में से उपरोक्त प्रागमयुक्ति से आत्मतत्त्व खोजकर लेने की प्रावश्यकता है । फिर पुनर्जन्म मरण का भय होने का कोई कारण नहीं रहता ।
१०८ - शुचिपुरुष जे वरजित माया— जो मोहमाया रहित निर्मायी - निर्देभी हैं वह ही सच्चा पवित्र पुरुष है । मोह माया से ही जीव मलिन हो गया है । उस मोह माया को
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