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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
प्रवेश कर नहीं करने योग्य काम करने की प्रेरणा करता है
और इस प्रकार प्रात्मा को पाप से मलिन बनाता है । स्त्री लक्ष्मो प्रमुख के लोभ के लिये तो लोग कई प्रकार के युद्धादिक अनर्थ करते हैं; परन्तु यश-कीति के लोभ से भी किसी प्रसंग पर अज्ञ नन अनेकों अनर्थ कर डालते हैं, फिर लोभान्धता से अपनी भूल स्वयं नहीं समझ सकते । अपितु दुनियां में भी बहुधा यह दोष व्याप्त है। अतः भाग्य से ही कोई किसी की भूल सुधारने को कह सकता हैं । केवल निःस्पृहो संत साधु जन ही ऐसी भूल सुधार सकते हैं। उनका अवसरोचित हित वचन लोभी ऊपर भो अच्छा असर कर सकता हैं । अतः जिनको लोभ से निवृत्ति की प्रबल इच्छा हो उनको ऐसे निःस्पृही की सेवा करनी चाहीये।
१०५-रोगमूल रस दूजा नांही-"रसमूलाचव्याधय" भिन्न भिन्न प्रकार के रोग पैदा होने का मुख्य कारण विषयवृद्धि-विषयासक्ति-विषयलोलुपता ही है। प्रत्येक इन्द्रियों के विषय में अत्यासकि अवश्य दुःखदाई है । इस भव में प्रगट व्याधि प्रमुख आपदा मिलता है और परभव में नरका. दिक यातना सहनो पडती है, अतः शानो पुरुषों विषयसुख को विषवत् समझ कर उस विषयसुख से विमुख रहते हैं और जो विषयासति से दूर रहते हैं वे ही सच्चे ज्ञानी हैं । ज्ञानी पुरुषों के पवित्र मार्ग में चलना हो हमारा परम कर्तव्य है ऐसा विचार कर जैसे हो सके वैसे विषयासति से दूर रहने का प्रयत्न करना चाहिये।
१०६-दुःखमूल स्नेह पियारे, धन्य पुरुष तिन्हु से न्यारे-" स्नेहमूलानि दुःखानि " दुःख का मूल स्नेह है ।
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