Book Title: Prashnottarmala
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Vardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 183
________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा ःः ८२ ः ः स्नेह करना सहज है परन्तु उसका निर्वाह करने में कष्ट का अनुभव होता है । स्नेह करने में भी बहुधा जीव धोखा खाता है । अस्थानपर स्नेह करने से उल्टी उपाधि उपस्थित हो जाती है । यदि अच्छे स्थान पर स्नेह हो गया हो तो भी इस बात की चिन्ता बनी रहती है कि कहीं इसका बियोग न हो जाय और कहीं देववशात् वियोग हो गया तो अत्यन्त क्लेश होता है । अतः सांसारिक स्नेहमात्र सोपाधिक है । जिसको निरुपाधिक सुख की चाहना हो उसको ऐसा स्नेह करना चाहिये कि जिसे बढाना उचित न हो। इसके लिये तो श्रीमद् उपाध्यायजी के वचन अति उपयोगी है । श्रीमान् का कहना है कि " राग न करजो कोई नर कोईसुं रे, नबि रहवाय तो करजो मुनिशुं रे । मणि जेम फणी बिषनो तेम तेहो रे, रागनुं भेषज सुजस सनेहो रे । " इसका यह अर्थ है कि ' कृत्रिम सुख के लिये तो किसी के साथ राग करना ही अनुचित है और यदि किसी के साथ राग करने की ही इच्छा हो तो शम दमादिक सद्गुणसम्पन्न मुनिराज के साथ ही करना उचित है । जिस प्रकार मणि से फणीधर का चढा हुआ विष दूर हो जाता है उसी प्रकार मुनिजन के प्रशस्त निःस्वार्थ राग से अनादि अप्रशस्त राग का विष दूर हो जाता है । " ऐसा सदुपदेश हृदय में अंकित कर अप्रशस्त राग को दूर करने निमित्त उक्त उपाय को काम में लाने की विशेष आवश्यकता है । इस प्रकार दृढ अभ्यास से आत्मा के अधिक लाभ होना संभव है । अपितुः जिन्होंने सम्पूर्ण राग को जीतकर वीतरागदशा प्रगट की है उनकी तो बलिहारी है। १०७ - अशुचि वस्तु जाणों निज काया - अशुचि में अशुचि वस्तु अपनी काया है । इस बात की प्रतीति त्रो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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