Book Title: Prashnottarmala
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Vardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 187
________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा :: ८६ :: योग्य हैं । स्वपरहित इच्छुक भव्यजनों को ऐसी विकथा में अपना अमूल्य समय न खोकर उसका सदुपयोग ही इस प्रकार हित आचरण प्रति उद्यम करना उचित है। विकथा द्वारा तो हित आचरण से विमुख हो जाते हैं और प्रमाद की पुष्टि होती है। प्रमाद की पुष्टि से अनेक प्राणी आपदा में फँस जाते हैं, अतः प्रमाद के अंगभूत विकथा को छोड कर जिससे स्वपरहित में अधिक वृद्धि हो ऐसा कार्य करना उचित है। १११-जहाँ बैठा परमारथ लहीये, ताहुँ सदाय सुसंगति कहिये-जिसकी संगति · से परमार्थ-तत्व मिले वही सच्ची सत्संगति है, और ऐसी सत्संगति ही सदैव करना योग्य है। सत्संगति को शास्त्रकारोंने “शीतल सदा संत सुरपादप " आदि पदों से कल्पवृक्षादि की उपमा दी हैं और वह उसके बिलकुल उपयुक्त है। जैसे कल्पवृक्ष की छाया शीतल होती है उसके नीचे बैठनेवाले को शांति मिलती है, उसी प्रकार सुसाधु जनों की संगति से भव्यजनों का त्रिविध ताप मिट जाता है, और सहज शान्ति-समाधि का लाम होता है। अपितु सत् संगतिः कथय किन करोति पुंसाम् ? इस वचन के अनुसार सत्संगति से कौन कौन से लाभ नहीं होते? सत्संगति से सब उत्तम होते हैं " बुद्धि की जड़ता का हरण करती है, वाणी में सत्य का सिंचन करती है अर्थात सब को प्रिय जान पड़े ऐसा मिष्ट और हितकर सत्य सिखलाती है, प्रतिष्ठा की वृद्धि करती है और पाप पुन्य दूर करती है' आदि अनेक उत्तम लाभ सत्संगति से होते हैं ऐसा समझ कर कुबुद्धि पैदा करनेवाली कुसंगति का त्याग कर, सुबुद्धि जागृत कर, सदाचरण सीख कर सद्गति प्रदान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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