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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
विषम संयोगों में चाहे जैसी कसोटी पर भी नहीं बदलता, तथा फीका नहीं पड़ता। सजन पुरुषों का स्नेहसमागम गंगा नदी के प्रवाह के सदृश पवित्र है, उनकी दृष्टि अमृतमय होती है, उनकी बाणो मधुर होती है इससे वे योग्य जीवों को अनेक प्रकार से उपकारक सिद्ध होती है। अत्यन्त अयोग्य जनों का यदि हित न हो सके तो इसमें सजनों का लेश मात्र भी दोष नहीं है, क्योंकि उनकी दृष्टि तो सब का हित करना चाहती है परन्तु वे जीव अपने दुर्भाग्य से सजनों से लाभ प्राप्त नहीं कर सकते। जैसे प्रकाशमय सूर्य तो अपने प्रकाश से दश दिशाओं को प्रकाशित कर जगत्मात्र का सभी हित साधता है परन्तु उस समय भी उल्लू की अखि बन्द हो जाती है, वर्षा में जब सब वृक्ष नवपल्लवित हो जाते हैं तब जवासा सूख जाता है, वसन्त ऋतु में जब सब वनश्री खिल उठती है तब करीर का वृक्ष मुर्जा जाता है और जब चन्द्र से सब को शीतलता प्राप्त होती है तब विरही जनों को विरहाग्नि जलाया करती है तो इसमें किसका दोष ? क्या सूर्य, वर्षा, वसन्त या चन्द्र का इसमें दोष है ? कदापि नहीं; किन्तु उन दुर्भागियों का ही दोष है। इसी प्रकार यदि सजन पुरुषों से हम उत्तम लाभ नहीं उठा सकते तो इसमें सजनों का लेशमात्र भी दोष नहीं है परन्तु हमारा ही दोष है। सजन पुरुष तो पूर्वोक्त उपमा के ही योग्य हैं। उनका स्वभाव, उनका समागम और उनकी कृति तो जगजन्तुओं के ऐकान्त हित के ही लिये है। उनका स्नेह-प्रेमवात्सल्य अभंग और अलौकिक होता है। केवल उनके उत्तम समागम का लाभ लेने के लिये हमको योग्यता प्राप्त करने की आवश्यकता है। यदि हम शुद्रतादिक दोषों को छोड़ कर अशुद्रतादिक उत्तम योग्यता प्राप्त कर सकें तो सर्व Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com