Book Title: Prashnottarmala
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Vardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 189
________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळी ::८८:: कल्पितस्वार्थ सिद्ध करने का वह. प्रत्येक अवसर ढूढते रहते हैं और उसको सिद्ध करने में किसी को कूऐं या नदी में फेंक देने से भी नहीं डरते । अर्थात् वे अपनी क्षुद्र स्वार्थ बुद्धि के पोषण निमित हरपक नीच कार्य करने को तत्पर रहते हैं, और ऐसा करने में उन्हें मन में कोई लजा उत्पन्न नहीं होती ऐसे पुरुषों पर विश्वास करना काले नाग पर विश्वास करने से भी अधिक खतरनाक है। विषधर सर्प के तो दो जीभे होती है लेकिन दुर्जन पुरुष की जीभ की संख्या कोई नहीं बतला सकता । अर्थात् वे मोका पड़ने पर अनेक उत्तम पुरुषों को अनेक रीति से अनेक बार कष्ट पहुंचाने का प्रयत्न करता रहता है। यद्यपि दुर्जन जन की विषमय उमिएं सजन पुरुषों के शुद्ध चैतन्य को हरने-नष्ट करने में असमर्थ ही रहती हैं। सजन पुरुष सदैव स्वकर्तव्य कर्भ में सावधान होते हैं इस से उनको दुर्जन लोगों का कोई डर नहीं रहता । उनमें तो अपूर्व अपूर्व जागृति से उसका नया नया चैतन्य बल उत्पन्न होता जाता है। सज्जनों के दिल को दुःखाने का यदि कोई सबल कारण हो तो वह यह हैं कि दुर्जन निष्कारण ही अपने आत्मा को मलिन कर के दुरंत दुर्गतिगामी बनता हैं । सजन और दुर्जन का सच्चे एवं झूठे स्नेह की तुलना करने को श्रीपालकुमार और धवल सेठ का द्रष्टांत प्रसिद्ध हैं । ११४-सज्जन स्नेह मजीठ रंग, सर्व काल जो रहत अभंग-जिस प्रकार दुर्जन स्नेह पतंग के रंग के समान फीका, अचिरस्थायी ओर कृत्रिम है उसी प्रकार सजन का स्नेह चोल मजीठ के रंग के समान उमदा, अविहड़ और अकृत्रिम अर्थात् स्वाभाविक है। अतः वह चाहे जैसे सम. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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