Book Title: Prashnottarmala
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Vardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 186
________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा अनुवादक हैं, जो वचन ज्ञान या क्रिया का ऐकान्त पक्ष नहिं खींचते हैं, जिन वचनों से ज्ञान और क्रिया की साथ ही साथ पुष्टि होती है और जिन वचनोंद्वारा शुद्ध समझपूर्वक शुद्ध क्रिया करने की इच्छा होती है उन्हे अध्यात्म वचन कह सकते हैं । जिस प्रकार पक्षी दो पंखद्वारा ही उड़ सकता है और जिस प्रकार रथ दो पहियोंद्वारा ही चल सकता है उसी प्रकार अध्यात्म भी शुद्ध ज्ञान क्रिया के संमेलन से ही होता है। उसके विना अध्यात्म नहीं कहा जा सकता । वस्तुत्तत्व की यथार्थ शिक्षा प्राप्त कर हिताहित का यथार्थ विवेक कर जो स्वहित साधन में प्रवृत्त हो और श्राहत कार्य से निवृत्त हो वह ही अन्त में स्वईष्ट सिद्धि कर सकता है। उसके बिना ऐकान्त ज्ञान या क्रिया के पक्ष में पड़ स्वपर को बड़ा भारी नुकशान किया जाता है। अध्यात्म मार्ग अध्यात्म कल्याण का अमोघ उपाय है, अतः इस में जो कोई कर्तव्य किया जाता है वह लोकदेखाव के लिये नहीं है परन्तु केवल अपने ही आत्मा का लक्ष्य लेकर केवल उसीकी शुद्धि व उसीकी उन्नति के लिये किया जाता है। ऐसी अन्तरष्टि जिसकी हो गई है वह “अध्यात्मदृष्टि" या "अध्यात्मी" कहलाता है। इसका विशेष वर्णन "प्रशमरति" में अध्यात्म सम्बन्धी उल्लेख से जाना जा सकता है। ११०-विषसम कुकथा पाप कहाणी-राजकथा, देशकथा, स्त्रीकथा और भक्त(भोजन)कथा ये चार विकथा के नाम से प्रसिद्ध है। जिस कथा के करने से न तो कोई स्वहित हो सकता है और न कोई परहित ही हो सकता है ऐसी नकामी निन्दादिक पापगर्भित या शास्त्रविरुद्ध स्वकपोलकल्पित कुकथा करना केवल पाप की ही पुष्टि करनेवाली और दुर्गतिदायक होने से विष समान जानकर वर्जना ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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