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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
ये सब इसीकी संतति हैं । भिन्न भिन्न रुप धारण करने वाले क्रोध, मान, माया और लोभरूप ईसका बड़ा परिवार है। दुगति के कारणरुप १८ पापस्थानों में प्रवृत्ति कराने वाले मोहही हैं । यह सबसे बड़ा जगत् प्रसिद्ध चोर है। यह दिन दहाड़े धाड़ा पटक कर प्राणियों का सर्वस्व हर लेता है । जो कोई आत्मसाधन करने का इच्छुक होता है । तो उसकी भी कठिन परीक्षा लेता है तथा अपने परिवार को भी उसकी कठिन परीक्षा करने का श्रादेश करता है। किसी धर्मात्मा का तो छिद्र देख कर यह बहुत खुश होता है।मोह ऐसी विविध प्रकार से जगत विडंबना करता है। ". मैं और मेरा " ऐसा मंत्र पढा कर सब को अंधा बना देता है । ऐसे अति दुष्ट एवं प्रबल मोह का नाश किये बिना कोई भो मोक्ष प्राप्ति नहीं कर सकता, और उस मोह का क्षय होनेपर मोक्ष प्राप्ति सुलभ हो जाती है । उसका अमोघ उपाय आत्मश्रद्धा और आत्मरमणरुप रत्नत्रय का यथार्थ प्राराधन करना है। प्रात्मज्ञानद्वारा अपना स्वरुप-सामर्थ्य ययार्थ.. रुप से जाना जा सकता है अर्थात् अपनी शक्ति का यथार्थ भान हो सकता है। आत्मंश्रद्धा से अपनी पूर्ण शक्ति प्रकटं करने में बाधक भूत राग, द्वेष, मोह, प्रमुख अन्तरंग शत्रुओं को दूर करने साधकरुप सत्संग प्रमुख अनेक सद्गुणों को प्राप्त करने के लिये स्वयं सावधान हो जाता हैं। इस प्रकार उज्वल रत्नत्रय का यथाविधि प्राराधन कर अन्त में सर्व कर्म मल का क्षय कर प्रात्मा अविचल मोक्ष पदवी प्राप्त कर सकता है।
१०४-पाप मूल लोभ जग मांहि-दुनिया मे सर्व पाप का मूल लोभ है । लोभ कई प्रकार का होता है । कभी.
एक प्रकार का तो कभी दूसरी प्रकार का, लोभ : अन्तर में, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com