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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
आदीश पास पसाय पामी, भावनगर रही करी, चिदानन्द जिणंद वाणी, कही भवसागर तरी ॥ ४० ॥
इति प्रश्नोत्तररत्नमाला समाप्त १०२-सतगुरु चरण रेणु शिर धरिये, माल शोभा इण विध भवि करिये-सदगुरु की चरणरज मस्तक पर धारण कर गुरुवाशा प्रमाण करना सुझजनों का कर्तव्य है । भाल (ललाटे) पर तिलक करने का भी यह हो उद्देश्य होना संभव है । स्वयंतत्व के जानकार होते हुए भी जो भव्यजनों के हित निमित्त सतत उद्योगवन्त हों, निष्पापवृत्तिवाले हों और अन्य आत्मार्थी जनों को भी निष्पाप मार्ग बतानेवाले हों, स्वयं भक्समुद्र से तैरनेवाले आर अन्यजनों की भी तार सकने वाले हों ऐसे सद्गुरु की ही आत्महितैषी जनों को सेवा करनी योग्य है । कहाँ भी है कि-" पवित्र करिये जिहा तुझ गुणे शिर बहिये तुझ आण; मन से कमी मी रे प्रभु ! -- न विसारि ये, लहिये परम कल्याण | " ऐसे परम गुरु के
गुणग्राम से जिहा पवित्र होती है, उनकी पवित्र श्राक्षाओं का पालन करने से हमारा उत्तमांग चमक पड़ता है और उनका सदैव स्मरण करने से अन्तःकरण उज्ज्वल हो जाता है, अपितु उससे जन्ममरण की सब न्यथाओं का नाश हो कार अक्षय अनन्त मोशमुख की प्राप्ति होती है।
१०३-मोहजाल मोटी अति कहिये, वांकु तोड अक्षयपद लहिये-हमको मोहित करे सो मोह । उत्तमप्रकार के ज्ञान दर्शन को प्राच्छादन करनेवाला, और अशुद्ध वृत्तिको पेदा करनेवाला मोह ही है। राग, द्वेष, ईर्षा, खेद मत्सर आदि
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