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प्रश्नोत्तर रत्नमाळा
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में करना आवश्यक हैं। जैसे जैसे गेहूं के लोट को अधिक अधिक गुन्धा जाता है वैसे वैसे उसमें मिठास बढ़ती जातो हैं उसी प्रकार सद्गुणनिधि संत-सुसाधु की जैसे जैसे अधिक विनय कीया जाता हैं वैसे वैसे आत्मा को अधिक लाभ होता जाता हैं । विनय से विद्या-विज्ञान प्राप्त होता हैं और घट में विवेक दीपक प्रगट होता है । इस से आत्मा को वस्तु · स्वरूप का, जड चैतन्य का, हिताहित का और गुणदोष का यर्थाथ भान तथा श्रद्धा होती है और निर्मल ज्ञान तथा श्रद्धा से स्वचारित्र की शुद्धि होती है । इस प्रकार रत्नत्रय की सहायता से प्रात्मा अक्षय सुख को प्राप्त कर सकती है । इसमें साधुसंगति पुष्ट आलम्बनरूप है अतः यह उपादेय है । ६८ - नारी की संगते पत जाय -- परनारी के परिचय से अपनी प्रतिष्ठा का लोप हो जाता हैं। जिसको स्वस्त्री से या स्वपति से संतोष नही होता उसीको परस्त्री या परपुरुष से परिचय करने की इच्छा होती है; अपितु यदि उससे संतोष न हो तो फिर किसी दूसरे से परिचय करने की इच्छा होती है इस प्रकार पथ भ्रम पशु के समान जहां तहां लज्जा विवेक रहित इधर उधर भटकते देखकर उसकी पापवृत्ति का पत्ता लोगों को लग जाता है औौस जिससे कामांध स्त्री-पुरुष अपनी प्रतिष्ठा से हाथ धो बैठते है । अपितु कुल घातक, कुलांगार आदि उपनाम से पुकारे जाते है । अनेक प्रकार के चांदी, प्रमेह आदि भयंकर व्याधियों के शिकार होकर अन्त में नरकादि दुर्गति को प्राप्त होते है; अतः समस्त स्त्री पुरुषों को उचित है कि अधिक विषयलालसा छोड़कर स्वदारासंतोषी ही रहना ! यह बात गृहस्थों के लिये है। साधुओं को स्त्रीसंगति सर्वथा हेय है। क्योंकि.
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