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प्रश्रोत्तररत्नमाळा
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जाती है, और तब वह बेचारा और भी अधिक शोकसागर में डुब जाता है । शरीर का स्वभाष ही विनाश का है। ऐसी विनाशकारी वस्तु पर मोह रख आत्मसाधन का स्वर्ण अवसर खोदेना और अन्त समय में उसके लिये रोना चिल्लाना व्यर्थ ही है, युक्त बात तो यह है कि मिट्टीरूप शरीर में से आत्म साधनरूप सुवर्ण खोज लेना ही सच्चा किमिया. पन है । अर्थात् उक्त सर्व वस्तुओं की असारता शास्त्रयुक्ति से और अनुभवपूर्वक निर्धारकर उसका मिथ्या अध्यास छोड़कर स्वपहित निमित्त उसका उपयोग करनेवाले ही धन्यवाद के पात्र हैं । यद्यपि ऐसे स्त्री पुरुषरत्न विरले ही होते हैं; परन्तु बिना ऐसी निर्मल परिणति के कल्याण होना भी कठिन है।
७३-नरकद्वार नारी नित जानो, तेथी राग हिये नहीं आनो-जिस स्त्री जाति के स्वाभाविक दुर्गुण शास्त्र वणित प्रथम प्रसंग में बताये गये हैं उस स्त्री को नरक का द्वार सम-नरक में जाने का साधनरूप समझकर उस में राग, मोह, श्रासक्ति न हो इसके लिये सदा सावधान रहना चाहिये । यह इस लिये कि यदि तुम एक क्षण भर भी गफलत कर लुभा गये तो परिणाम में तुम्हें नरक के अन्त दुःख दावानल में जलना पडेगा । स्त्री जाति में भी अपवाद. रूप से कईक स्त्री रत्न प्रथम हो चुके है, अब हैं और भविष्य में भी होगी।
७४-अन्तर लक्ष रहित ते अंध, जानत नहीं मोक्ष अरु बंध-किन किन कारणों से आत्मा कर्मबन्धक होती है और किन किन कारणों से आत्मा कर्ममुक्त होती है इस को यथार्थ रूप से जानने योग्य अन्तर लक्ष्य जिसमें नहीं वह ही सचा अंध है। ऐसे अन्तर लक्ष्य रहित अंध जन क्रिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
किन किन कारयोग्य अन्तर
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