Book Title: Prashnottarmala
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Vardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 160
________________ प्रश्नोत्तररत्नमाळा अपमानपात्र होता है, अतः स्वपर दोनों का हितहो ऐसा मिष्ट एवं सत्य वचन ही बोलना आवश्यक है। ७७-सकल जगत जननी है दया, करत सभी प्राणी की मया-दया, रहम, जयणा और अहिंसा ऐकार्थरूप हैं । दया जगत्वत्सला अननी (माता) है। दुनिया में जो देव, मानव या पशु पर्यंत सुखी प्रतीत होते है यह दया काही प्रताप है । दया की महिमा अचिन्त्य अपार है। दया ही इन्द्र के, चक्रवर्ती के या ऐसे उत्तम ऐहिक सुख प्रदान करती है, और अन्त में दया ही आत्मा को शाश्वत सुख की भोक्ता बनाती है । देह लक्ष्मी प्रमुख जड़ बस्तुओं का मोह छोड़कर परमदयालु श्री वीर परमात्मा के पवित्र वचनानुसार निःस्वार्थ मन से अहिंसा धर्म का प्राचरण करने के लिये जो जो सदउद्यम किये जाते हैं वे सब महाकल्याणकारी होते हैं । जगत के जीव जो जो सुखशान्ति का अनुभव करते हैं वह पूर्व जन्म में किये अहिंसा धर्म का ही फल है। उसी प्रकार वर्तमान काल में भी जो अहिंसा धर्म का साक्षात् पालन करते हैं और भविष्य काल में जो उसका पालन करेगें वे सब अहिंसा धर्म के कारण संसार में भी प्रकट सुख का अनुभव करेगें व बाद में अनुक्रम से अक्षयसुख के भोक्ता बनेगें । इस प्रकार सर्व प्रकार के सुखों को प्रकट करनेवाली, उसका पालनपोषण करनेवालो, श्रार ऐकान्त अमृतवृष्टि करनेवाली जगदंबा जननी अहिंसा ही है । ऐसा समझकर सुखार्थी सब प्राणियों को उसीकी आराधना करने को अहोनिश उद्यत रहना चाहिये । उसकी कभी भी कुपुत्रवत् विराधना नहीं करना चाहिये । जो उक्त मार्ग का उल्लंघन नहीं करेगें वे अवश्य सुखी होगें। ७८-पालन करत पिता ते कहिये, ते तो धर्म चित्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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