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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
भी दुःखरूप ही हैं और उस दुःख को मिटाने के लिये उसका योग्य प्रतिकार शास्त्रनीति से सावधानतया करनेकी आवश्यकता है और यदि उसमें अतिचार हो जाय तो उस दुःख का मिटने के स्थान में अधिक बढ़ना ही संभव होता है। मन, वचन और काया के निखिल विकारों को वश में करने के लिये शास्त्रकारने समिति गुप्तिरूप मुनि धर्म और स्वदारासंतोषादिरुप गृहस्थधर्म बताया है । उसका सद्गुरु समीप भलिभांति ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार श्रीचरण करनेवाले आत्मार्थी अन अवश्य अनुक्रम से त्रिविध कामना से मुक्त हो सकते हैं और यह ही सुख-संतोष की पराकाष्ठा होने से शाश्वत सुख के अर्थीजनों को ग्रहण योग्य हैं । कहा भी है कि न तोषात् परमं सुखं' अर्थात् संतोष जैसा श्रेष्ठ सुख नही और न तृष्णायाः परो व्याधिः ' विषयतृष्णा समान कोई व्याधि नहीं । इसासे शास्त्रकारने कहा है कि “ विषयइन्द्रियों को स्वतंत्र छोड़ना आपदा का मार्ग है और उनको वश में रखना सुख-संपदा का मार्ग है अच्छा लगे उसे ग्रहण करो।"
८४-जाको तृष्णा अगम अपार, ते म्होटा दु:खिकातनुधार जिनकी तृष्णा का पार नहीं अर्थात् जिनकी तृष्णा अमन्त अपार है उनके दुःख का भी पार नहीं है याने उनका दुःख भी अनन्त अपार होता है । झानी पुरुषों में लोम को अग्नि को और तृष्णाको उसकी अबाला की उपमा दी है अथीत जैसे जैसे ईधनादिक योग से अग्मि प्रबल होती जाती है वैसे वैसे उसकी ज्वाला भी प्रखर परितापकारी होती जाती है। इस प्रकार लोभी पुरुष को जैसे जैसे लाभ मिलता जाता है वैसे वैसे लोभांघता बढ़ कर उसकी तृष्णा को अमShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com