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प्रश्नोत्तररत्नमाला
शास्त्र तो वस्तु की केवल दिशा मात्र ही बताता है जब कि उसका पार तो अनुभव ही पटकता है। अनुभवज्ञान केवलज्ञानरूपी सूर्य का अरुणोदय है। किस किसकी कल्पनारूप करुछी शास्त्ररूपी क्षीर में नहीं फिरती, परन्तु अनुभवरूपी जीभद्वारा उस शास्त्रक्षीर का आस्वादन करनेवाले तो कोई विरले ही प्राणी होते हैं। ये सब सूक्त वचन अनुभवज्ञान की अपूर्व महिमा प्रदर्शित करते हैं, ऐसा समझ कर जिससे अपने शुद्ध प्रात्मतत्त्व का सम्पूर्ण साक्षात्कार हो वैसे अनु. भवज्ञान के लिये ही यत्न करना उचित है।
९२-कामगवी वर विद्या जान-सद्विद्या को कामधेनु सदृश सुखदायी कहां गया है। जिस प्रकार कामधेनु सर्व प्रकार की मन कामना पूरी करती है वैसी ही विद्या भी।
" तत्वधीविद्या" वस्तु को वस्तुस्वरूप से जिससे जाना जाय, अर्थात् वस्तु का यथार्थ स्वरूप बतलानेवाली विद्या सदविद्या कहलाती है और इससे विपरीत विद्या अविद्या कहलाती है। उस अविद्या का स्पष्ट लक्षण यह है “ अनित्य, अशुचि और परवस्तु को नित्य, पवित्र अपनी मानना" ऐसी अविद्या, मिथ्या भ्रांति या अज्ञानः को हटाने का प्रयत्न करना हमारा प्रथम कर्तव्य है । इसके बिना कामधेनु सदृश श्रेष्ट विद्या का प्राप्त होना अशक्य है और उसके बिना आत्मकल्याण होना भी कठिन है अतः आत्मार्थी प्राणियों को सद्गुरु समीप सदविद्या प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये।
९३ चित्रावेली भक्तिचित्त आन-भक्ति को चित्रावेली से उपमा दी गई है । जैसे चित्रावेली से स्वर्णसिद्धि होती है वैसी ही भक्ति से भी भव्यजनों की मनकामना पूर्ण होती है, इतना ही नहीं अपितु इससे स्वर्ग और अपवर्ग-मोक्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com