Book Title: Prashnottarmala
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Vardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 173
________________ श्रोत्तररत्नमाळा :: ७२ :: की भी प्राप्ति हो सकती है । अन्य साधनों से भक्ति का साधन सुलभ है इतना ही नहीं परन्तु संगीत सुख देनेवाला भी है । ज्ञानादिक अन्य साधन में मद आने का भय है जबकि भक्ति में ऐसे भय का अबकाश भी नहीं रहता । भक्ति से तो नम्रतादिक सद्गुणश्रेणी दिनप्रतिदिन बढ़ती ही जाती है । भक्ति की धुन में मस्त भद्रिक जीव अपना भान भूल कर भगवंत के साथ एकरूप हो जाते हैं । इससे अनेक भक्तजनोने भक्ति के सुलभ मार्ग में ही प्रयाण किया है। ९४ संजम साध्यां सब दुःख जाय, दुःख सब गयां मोक्षपद पाय-संयम अर्थात् आत्म निग्रह करना। यह इसलिये कि अनादि अविद्या के कारण जीव जो उन्मार्गगामा हो गया है-हिंसा, असत्य, अदत्त, अब्रह्म और परिग्रह में लुब्ध हो गया है, पांचो इन्द्रियों के परवश बन गया है, क्रोधादिक कषाय को सुखबुद्धि से सेता है और मन, वचन तथा काया के यथेच्छ व्यापार में हो सुखवुद्धि मान बैठा है । उसकी उस अनादि भूल को सुधार कर उसे सन्मार्गगामो बनाना चाहिये अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और असंगता (निःस्पृहता )रूप महाव्रत का यथाविधि सेवन करना चाहिये । विषय-इन्द्रियों को वश में रखना अर्थात् शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्शरूप इन पांच विषय में होनेवाली विकारबुद्धि को डालना, क्षमा, मृदुता, सरलता और ज्ञान, ध्यान, तप, जप द्वारा मन, वचन तथा काया के दुष्ट व्यापार को रोकना, इस प्रकार १७ प्रकार के 'संयम के यथार्थ पालन करनेवाला के भवभ्रमण सम्बन्धी सकल दुःख दूर हो जाते हैं अर्थात् उसको भवभ्रमल नहीं करना पडता और सकल कर्ममल का सम्पूर्ण क्षय कर के वह अजरामर सुख को प्राप्त करता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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