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प्रश्नोत्तररत्नमाळा ९५-श्रवण शोभा सुनिये जिनवाणी, निर्मल जेम गंगाजल पाणी-जिस प्रकार गंगाजल निर्मल-मेल रहित है, उसी प्रकार जिनेश्वर प्रभु की वाणी राग, द्वेष और मोहरूप मल से सर्वथा मुक्त है; क्योंकि सर्वज्ञ परमात्मा में उक्त दोष का सर्वथा अभाव ही रहता है और इसीसे उनकी वाणी निर्मल कही गई है । ऐसी निर्मल वाणी का कर्णपुर से पान करना श्रवण इन्द्रिय की सच्ची शोभा है। अज्ञानी जन अपने कानों को कल्पित सुवर्णादिक भूषणों से भूषित करने का प्रयत्न करते हैं, जब कि तत्वरसिक अपने कर्ण को सहज निरुपाधिक सुवर्ण ( उत्तम वर्ण-अक्षरात्मक वचन पंक्ति ) द्वारा सुशोभित करते हैं, और इस प्रकार अपनी सकर्णता सार्थक करते हैं।
९६-नयन शोभा जिनबिंब निहारो, जिनपडिमा जिन सम करी धारो-जिस प्रकार जिनवाणी का श्रवण करना कर्णशोभा है उसी प्रकार जिनमुद्रा-जिनप्रतिमा का दर्शन करना नयनशोभा है । जैसे जिनवाणी से हृदय में विवेक प्रकट होता है उसी प्रकार जिनदर्शन से भी विवेक प्रकट होता है। यह इस प्रकार कि प्रभु-मुद्रा के देखने से प्रभु के मूल स्वरूप का स्मरण हो जाता है, और प्रभु के स्वरूप का यथार्थ भान हो जाने पर उसी प्रकार जो हमारा
आत्मस्वरूप सत्तागत है उसकी झांकी नजर आती है और स्थिर अभ्यास से प्रभुस्वरूप के सानिध्य से हम भी प्रभु 'सहश होने का प्रयत्न करते हैं। जिस जिस प्रकार हम प्रभुमुद्रा से प्रतीत होनेवाले गुण का अभ्यास करते रहेंगे उस उस प्रकार हमें हमारे अन्तर में छोपे गुणों के प्रकट करने में सफलता प्राप्त होगी और अन्त में प्रभु के संग अभेदShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com