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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
:: ६८ ::
के समान
से मनुष्य इतना
साहपूर्वक
भय साथ लगे रहते हैं । यदि मरण के महाभय से सर्वथा मुक्त हो सके तो अन्य साथ लगे भय तो अपने पाप पलायमान हो जाते हैं । इस मरण के महाभय से मुक्त होने के लिये ही सर्वज्ञ परमात्माने सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र का उत्तम मार्ग बताया है कि जिन रत्नत्रय का यथाविध आराधन करनेवाले प्राणी अवश्य अन्ममरण सम्बन्धी सब भय से मुक्त हो सकते हैं। अतः निर्भय सुख की इच्छा करनेवाले प्राणी के लिये यह ही कर्त्तव्य है।
८७-पंथ समान जरा नवि कोई—जिस प्रकार जरा अवस्था से शरीर जरजरित हो जाता है, इस से उसमें यौवन वय के समान सामर्थ्य एवं उल्लास नहीं रहता, इसी प्रकार बड़ी यात्रा कर लेने से मनुष्य इतना अधिक थक जाता है कि उससे कोई भी अगत्य का काम उत्साहपूर्वक नहीं हो सकता और जो बाध्यरूप से किया भी जाता है उस में भी उनको कठिनता मालूम होती है। अतः अनुभवी पुरुष कहते हैं कि चाहे जितनी लम्बी यात्रा पग चलकर करना हो लेकिन " चार चार कोश चलने पर लाखों मील मार्गगमन कर सकते हैं ” इस बच्चन के अनुसार शरीर से हो सके उतना ही कार्य करना कि जिससे भविष्य में अधिक न सहना पड़े तथा हमारी व्यवहारिक एवं धार्मिक करणी में भी बाधा न पडे ।
८८-प्रबल वेदना क्षुधा वखानो-अन्य सब : वेदनाओं में क्षुधा वेदना अधिक प्रबल है। अन्य वेदनाओं से मन में वैराग्य उत्पन्न होता है, प्रभु का नाम याद आता है या परभव का साधन करने की मन में प्रेरणा होती है, तब क्षुधा के प्रबल उदय समय ये सब उपस्थित होने पर भी प्रायः भगज़ाती हैं । इस क्षुधा परिसह को सहन करनेवाला कोई
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