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'प्रश्नोत्तररत्नमाळा
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सदहिये-जो हमारा पालनपोषण करता है वह पिता कहलाता है, वह तो केवल एह, भवाश्री ही प्रायः होता है, परन्तु जो हमारी भव भव में रक्षा करे, हमारा समोहित साधे, हमको आनन्द में रक्खे, लेश मात्र भी दुःख का स्पर्श न होने दे और परिणाम में हमको दुर्गति के दाव में से बचाकर सद्गति में लावे और अनुक्रम से अक्षय सुख समाधि के भागी बनावे यह धर्म पिता का ही परम उपकार है । यह असीम उपकार कदापि भूलाया नहीं जासक्ता । नोति अनीति का भेद बताकर अनीति-अन्याय के मार्ग से बचाकर हमको नीति-न्याय के मार्ग में लगाकर सत्य, अस्तेय, शील और संतोषादिक के उत्तम तत्त्व को समझा कर सर्व पापों से विमुख कर निर्मल चारित्रयुक्त बनाते हैं और उसी में हमारे उपयोग को श्रोतप्रोत मिला कर हमको परमानन्द में निमग्न कर देते हैं वे पूज्य धर्म पिता हो हमेशा शरण्य (आश्रय करने योग्य ) हैं । संसार में कहलानेवाले पिता प्रातादिक सम्बन्धो स्वार्थी होते हैं । वे स्वार्थ सिद्ध होजाने पर या स्वार्थ में अन्तराय पड़जाने पर छोड़ देते हैं जब कि सच्चा धर्म और सच्चे धर्मीजनों का सम्बन्ध केवल निःस्वार्थ और एकान्त सुखदायी है । इस प्रकार चित्त में दृढ़ श्रद्धा रख कलिलन सम्बन्ध से नहीं लुभा कर धर्म के स्थाई सम्बन्ध के लिये ही उद्योग करना उचित है।
७९ से १०१ तक के २३
प्रश्नों का उत्तर निम्न लिखित है-मोह समान रिपु नहीं कोई, देखो सहु अन्तरगत जोई ।
सुख मित्त सकल संसार, दुःख में मित्त नाम आधार ॥२५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com