Book Title: Prashnottarmala
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Vardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 156
________________ ::५५:: प्रश्नोत्तररत्नमाला वत्सल श्री जिनराज भगवान द्वारा भव्यजनों के ऐकान्त हित के लिये भाषित पूर्वोक्त साधनरूप धर्म का स्वरूप यथार्थ गुरुगम्य जानकर निर्धार कर उसको यथाशक्ति ग्रहण करने के लिये प्रमाइ रहित होकर प्रवृत्ति करना ही उचित है। ७२-तन, धन, योवन सकल असार-शरीर, लक्ष्मी और यौवन ये सब असार अर्थात् क्षणिक और भययुक्त हैं, शरीर अशुचि से भरा हुआ, क्षण में विनाश होनेवाला, और रोगाकुछ अर्थात् रोग से भरा हुआ है । लक्ष्मा का दूसरा नाम चपला है, वह जात से ही चपल स्वभावी है । वह स्थिर रहेगो पेसा भरोसा करना ही वृथा है । तथा इसके संयोग से मोहादिक कई उन्मादों का उत्पन्न होने की संभावना है अपितु चोर प्रमुख का भी भय बना ही रहता है। यौवन के पश्चात् जरावस्था अत्यन्त वेग से चली आती है, तथा यौवनवय में विषयलालसादिक कइ विकार पैदा होते हैं अतः इसमें विशेष सावधान रहने के लिये ज्ञानी पुरुष उपदेश करते हैं । यौवनवय को निष्कलंकरूप से व्यय करते है और उसका स्वपरहित के लिये ही उपयोग करते हैं वे महाभाग्यवान हैं । यही दशा लक्ष्मी और शरीर की भी समझनी चाहिये । जब तक पूर्वकृत पुण्य का प्रबल उदय होता है तब तक ही लक्ष्मी स्थिर रहती है। उस समय में यदि उसका सदुपयोग हो सके तब ही स्वपर हितसरूप हो सकती है, अन्यथा उसकी क्या गति होगी उसका दिग्दर्शन कराना अशक्य है परन्तु इतना तो प्रत्यक्ष है कि कृपणता दोषवाले को तो वह किसी भी प्रकार हितकर नहीं हो सकती, परन्तु केवल क्लेशरूप है। क्योंकि वह; दीन अनाथ होने पर भी सदैव उसकी रक्षा निमित्त हो उसका संचय करता है, तिसपर भी उसके पूर्व पुण्य के क्षय होते ही वह लक्ष्मो हुई न हुई हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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