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प्रयोत्तररलमाळा
और इन्द्रियजन्य विषयसुख के प्राशक ऐसे विरतिजनों का क्षणिक और कल्पित सुख यह गढ़े के जल के सहश अल्प और तुच्छ है इस पर विचार कर दोनों में से जो अधिक हितकर प्रतीत हो उस सुख के लिये ही उद्यम करना उचित है।
५१. इच्छारोघन तप मनोहार-भिन्न भिन्न विषयों की ओर दौडती हुई इन्द्रियों का और मन का दमन कर उन उन विषयों में होनेवाले राग द्वेषादिक विकारों के निवारणार्थ आत्मनिग्रह करना ही सच्चा सुन्दर मनोहर तप है और उक्त अनिष्ट विकारों के दमनार्थ ही समर्थ ज्ञानी पुरुषोंने नाना प्रकार के बाह्य एवं अभ्यंतर तप करने का उपदेश किया है । इन उभय प्रकार के तप का स्वरूप विस्तार'पूर्वक अनेक स्थान पर बताया गया है, वहां से समझकर यथाशक्ति तप करना आवश्यक है । तप से विकारों का नाश हो जाता है, अनेक प्रकार की लब्धिएं एवं सिद्धियों की 'सिद्धि होती है, तथा परिपूर्ण कर्ममूल का क्षय हो जाता है, प्रात्मा उज्ज्वल होकर अक्षय अनन्त, ऐसे शाश्वत मोजसुख का भोका बन जाता है, अतः इसके लिये पूर्ण प्रयत्न करना अत्यन्त प्रावश्यक है।
५२. जप उत्तम जग में नवकार-जिससे उत्तम कोटिवाले आत्मा का संस्मरण हो वह जप कहलाता है। वैसा जप संसार में नवकार महामंत्र जैसा कोई दूसरा उत्तम नहीं, क्योंकि नवकार महामंत्र में अरिहंतादिक पंचमेष्ठो का समावेश होता है। उसमें अरिहंत और सिद्ध भगवान जो अनन्तगुणों के प्रागार है, आचार्य महाराज निर्मल अखंड ब्रह्मचर्यादिक १६ गुणों सहित, उपाध्याय महाराज उत्तम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com