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प्रयोत्तररत्नमाळा
उत्तम वृत्ति जिनके घट में दिनरात जागृत है उनका अहो. भाग्य है और उस उत्तम वृत्ति से वे शीघ्र ही इस भवसागर से पार पा सकते हैं।
६१.अति प्रचन्ड अग्नि हैं क्रोध-द्वेष, ईर्षा, असूया, मत्सर, परद्रोह, वैर, श्राप और हिंसादिक सब क्रोधरूप हैं। ये महाभयंकर अग्नि सहश हैं । ये अग्नि के समान प्रथम तो जिसके मन में प्रकट होते हैं उन्ही को कष्ट देते हैं-जलाते हैं और फिर जिस तरफ लपट लगती है उसमें यदि उपशम रस का बल न हो तो उसको भी भस्म कर देते हैं और इसी प्रकार अनुक्रम से अनेक जनों को कष्ट पहुचाते हैं । दुसरा जिस प्रकार अग्नि जल के योग से शान्त हो जाती है उसी प्रकार क्रोधाग्नि भो पूर्ण शम, प्रशम, उपशम, क्षमा, शान्ति, प्रशान्ति, उपशांति आदि उपचारों से शान्त हो जाता है। अग्नि से दग्ध हुई भूमि में तो बोऐ हुए बीज अंकुरित हो जाते हैं किन्तु क्रोधाग्नि से दग्ध हुइ हृदयभूमि में तो प्रेमांकर कभी प्रगट नहीं हो सकते । इस प्रकार अनेक पहलु से विचारने से ज्ञात होता है कि क्रोध अत्यन्त अहितकर हैं, अतः वह सर्वथा वर्ण्य है ।
६२. दुर्दम मान मत्तंगज जोध-यहां मान को मदो. न्मत्त हाथी की उपमा दी गई हैं । ऐसे हाथी को बड़ी कठिनता से वश में किया जा सकता है। ऐसे मदोन्मत्त हाथी को रणसंग्राम में सब आगे रखने की रीति होना सुना जाता है । वह अपने मद में उन्नत्त होने पर भी शहर के द्रढ द्वार को भी तोड़ डालता है। अहंता और ममतारूपी मोह मदिरा से मत्त हुआ अहंकार भी ऐसा ही है। उसके भी क्रोध के समान बढ़ता, मद, अभिमान आदि अनेक अनिष्ट पर्याय हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com