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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
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शाश्वत सुख के अर्थी जन को स्वप्न में भी परद्रोह का विचार तक नहीं करना चाहिये ।
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५९. ऊँच पुरुष परविकथा निवारे- जिस बात के करने में न तो अपना हो हित हो, न दूसरे का हो ऐसो नकामी विकथा उत्तम पुरुष नहीं करते हैं । विकथा करनेचाला अपना एवं दूसरों दोनों का बिगाड करता हैं । प्राप्त हुई सामग्री का न तो वह स्वयं ही कोई लाभ ले सकता है न दूसरों को ही लेने देता हैं । विकथा करनेवाला किसी समय निन्दादिक में उत्तर कर स्वपर का बड़ा भरी अहित कर बैठता हैं । अतः जिस बात में न तो कोई सार ही हो, न कोई लाभ ही है। ऐसी बात करने के बनिस्बत तो अपने भरसक कोई सदुद्यम कर के स्वपर का हिन साधना ही श्रेय हैं ।
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६०. उत्तम कनक कीच समजाणे, हरख शोक हृदय नवि आणे - उदार दिल के निःस्पृह पुरुष इस दुनिया के दृश्य पदार्थों से नहीं लुभाते । सम्यग् ज्ञानदृष्टि से जड़ चैतन्य का स्वरूप समझकर जहां तक बन सके वहांतक उस जड़ वस्तु से अलग रहे ते है। सुवर्णराशी उनको नहीं लुभा सकती, क्योंकि निःस्पृहता से वे सुवर्ण को कीचवत् समझते है, अतः सुवर्ण सदृश पर वस्तुओं के संयोग से उनको हर्ष उन्माद नहीं होता, उसी प्रकार उसके वियोग से भी दुःख दीनता भी नहीं होती । ईष्टानिष्ट संयोग वियोग में वे तत्वदृष्टि समभाव रख सकते हैं और इसीलिये वे सदा प्रसन्नचित्त से संतोष' सुख में निमग्न रहते हैं । ऐसे तत्त्वज्ञानी पुरुषों को स्वप्न में भी दुःख का स्पर्श मात्र नहीं होता है । उनको अपने आरमा में अकृत्रिम अनहद सुख का अनुभव हो सकता है। ऐसी.
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