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प्रश्नोत्तररत्न माळा
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५६. अति दुर्जय मन की गति जोय - जिस प्रकार सब इन्द्रियों में जिह्वा इन्द्रिय का वश में करना बड़ा कठिन है, सर्व व्रतों में जिस प्रकार ब्रह्मचर्य पालना दुष्कर है उसी प्रकार योग में भी मनयोग जीवना कठिन है। मन जीतना कठिन है यह बात सच्च है लेकिन इसके जीतने के भी शुभ उपाय शास्त्र में बताये गये है । उसका गुरुगम्य बोध प्राप्त कर मनको स्थिर करने का प्रयत्न करना आवश्यक हैं । पारा के समान चपल मन को मारने के लिये बहुत पुरुषार्थ की जरूरत है, और इसका फल भी कम महत्त्व का नहीं है । कहा है कि 66. मन पारद मूर्छित भये, अन्तरंग गुणवृन्द, जागे भाव निरागता, लगत अमृत के बिन्द || " अर्थात् मनरूपी पारा, निरागतारूपी अमृत के स्पर्श होते: ही मूर्छित होकर जब मर जाता है तब प्रात्मा के अन्तरंग गुणों का समुदाय सजीवन होता है । मतलब कि मन के जय होने पर हो सकल सद्गुणों की प्राप्ति हो सकती है । अत: अति चपल मन को वश में करने की आवश्यकता सिद्ध होती है । फिर कहा है कि मन को मारने से हो इन्द्रिय स्वतः वशीभूत हो जाती है; और उनके वश में होने से कर्म शत्रुओं का क्षय होजाता है, अतः मन को ही मारना आवश्यक है । अपितु मन जीता उसने सब कुछ जीता ऐसा प्रानंदघनजी कहते हैं इससे अधिक क्या चाहिये ?
५७. अधिक कपट नारी में होय - पुरुष से भो त्रो जाति में स्वाभाविकतया अधिक कपट होता है। यह एक सामान्य बात है, बाकी तो अपवादरूर से पुरुष से भी न्यून कपटवाली अथवा निष्कपट प्रवृत्तिवाली भी स्त्रिये मिल सकती हैं, यह बात सुसंभवित है। अत्यन्त कपटवाली स्त्रियों
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