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प्रातरालमाळा
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प्रकार के विनय सहित सत्शास्त्र के पठनपाठनादिरूप २५ गुणों सहित और मनुष्य लोकवर्ती निग्रंथ मुनि समुदाय अहिंसादिक उत्तम २७ गुणों सहित जगत्रय को पावन करते हैं, उनका समावेश होता है। तथा जो अनन्त शान, दर्शन और चारित्रादिक धर्मद्वारा अरिहंतादिक विभूषित हैं वैसे शुद्ध प्रात्मधर्म का भी नवकार महामन्त्र में सहज ही में समावेश हो जाता है। अतः आत्मसाक्षात्कार करने की प्रबल इच्छा रखनेवाले भव्यजनों को उक्त महामंत्र का वारंवार जप करना चाहिये । इससे आत्मा की शिघ्रातिशिघ्र उन्नात होती है।
५३. संजम आतम थिरता भाव, भवसायर तरवा को नाव-आत्मप्रदेश में रत्नज्योति के सदृश सहज व्यापी शान, दर्शन, चारित्रादिक सदगुण समुदाय में ही अकृत्रिम प्रेमभावसे रमण करना ही संयम है। जैसे बोट ( Boat ) की सहायता से सागर आनन्दपूर्वक तैरा जा सकता है उसी प्रकार उक्त संयम द्वारा आत्मा आनन्दपूर्वक जन्म, जरा और मरण सम्बन्धी अनन्त और अगाध दुःखरूप जल से भरे हुए इस संसार समुद्र से पार हो सकती है। हिंसा, असत्य, अदत्त, अबह्म और परिग्रह से निवर्ती होकर, इन्द्रियों पर काबू रख कर मन, वचन और काया के कुत्सित व्यापार को छोड़कर, अहिंसादिक उत्तम साधन-संतति का परमार्थभाव से अवलम्बन कर, यह आत्मस्थिरतारूप संयमगुण की आराधना के लिये ही है और इसीसे भवसमुद्र को तैरकर मोक्षपुरी में पहुचना सुलभ है, इससे विपरीत हिसा असत्यादिक असंयम का. अनन्यभाव से अवलम्बन करने से
आत्मभाव अत्यन्त अस्थिर होकर मलिनता को प्राप्त हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com