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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
:: ४० :: करना हो आत्मार्थी सज्जनों का मुख्य कर्तव्य है, और यह ही जिनेश्वर परमात्माद्वारा प्ररूपीत शुद्ध सनातन शैली है।
४९. इन्द्रिसुख छिल्लर जल जाणे-जिस प्रकार एक महासागर अथवा अगाध अलवाले सरोवर के सामने छिछले जलवाला गड किसी गिनती में नहीं होता, उसी प्रकार शुद्ध निष्कषाय आत्मा के अतींद्रिय स्वाभाविक सुख के सामने इन्द्रियजन्य विषयसुख केवल गढ़ के समान अल्प एवं तुच्छ हैं ऐसा समझना । आत्मा का शुद्ध स्वाभाविक सुख निरुपाधिक-उपाधिवाजत है जबकि इन्द्रियजन्य सुख सोपाधिक अर्थात ‘उपाधियुक्त है। श्रात्मा का सहज सुख निर्विकल्परूप है और इन्द्रियसुख सविकल्परूप है। प्रात्मा का सुख स्थिर-चिरस्थायी है
और इन्द्रिय सुख अस्थिर-क्षणिक है । श्रात्मा का सुख सम्पूर्ण है और इन्द्रिय सुख अपूर्ण है। आत्मा का सुख अकृत्रिम है और इन्द्रिय सुख कृत्रिम-कल्पित है । आत्मा का सुख एकरूप है और इन्द्रिय सुख नानारूप है तथा आत्मिक सुख शाश्वत है और इन्द्रिय सुख क्षणिक है। उक्त उभय जात के सुख में ऐसा प्रकट पटान्तर समझ कर प्रात्मार्थी सजनों को आत्मा का सहज शुद्ध प्रखंड अक्षय निर्विकल्प निरुपाधिक अकृत्रिम ऐकान्त अजरामर ऐसा शाश्वत सुख संप्राप्त करने के लिये हो अहोनिश उद्यम करना चाहिये । इन्द्रियसुख का मोह छोड़कर मन को स्थिर करने से उसका मिलना सुलभ है ।
५०. श्रमण अतिन्द्रि अगाध वखाणों-श्रमण तपस्वी मुनिराज को कहना चाहिये कि जिनके द्वारा अनुभवित सहज भतींद्रिय आत्मिक सुख ही सच्चा अगाध-अपार-निःसीम है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
मुनिराज को करना चाहिये कि जिनके बारा अनुभवित माना