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प्रश्नोत्तररमाळा
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भूतं न होकर जिस प्रकार स्वपर का अधिक हित हो उस प्रकार दिन रात प्रयत्न करते रहते हैं। सज्जन पुरुष नीतिन्याय - प्रमाणिकता के मार्ग को छोड़कर अनीति-अन्यायप्रमाणिकता के मार्ग का कभी अवलम्बन नहीं करते । इसी में उनकी उत्तमता का समावेश है; जब कि शूद्रजन अपने कल्पित तुच्छ स्वार्थ के लिये दूसरों के प्राण लेनेसे भी बाज नहीं आते। ऐसे अनार्य आचरण करनेवाले शूद्रजन अपने इस भव और परभव को बिगाड़ते हैं और दुनियां में श्रापरूप होकर अनेकों अज्ञानीजनों को उन्मार्गगामी बना कर दुःखभागी बनाते हैं ।
४७. अथिररूप जानो संसार - संसार-संसार की माया, संसार का सुख, सब अथिर- अशाश्वत है। क्षण में एक गति में तो क्षण में दूसरी गति में कर्मवश जीव भटकता हो रहता है । नाथे हुए सांड के सदृश जीव को कर्म जहां खींचकर ले जाये वहां जाना ही पडता है । इसमें उसका कोई बस नहीं चलता है । अर्थात् कर्मवश जीवों का संसार में अनियत वास है। फिर भी " जैसी मति वैसी गति " इस शास्त्रवचनानुसार अच्छी मति से शुभ करणी करनेवाले को शुभ गति-देव मनुष्यरूप होती है और बूरी मति से अशुभकरणी करनेवाले को बूरी गति-नरक तिर्येचरूप होती है। परन्तु जब तक उनके मूलरूप राग द्वेष मोहादिक सब नष्ट नहीं हो जाते तब तक संसार परिभ्रमण तो करना ही पडता है और तब तक विकार के वशीभूत होकर संसार की माया में फँसकर परिणाम में अति दुःखदायी ऐसे कल्पित क्षणिक सुख में सुखबुद्धि रख मधुबिन्दू के दृष्टान्तरूप उनमें फँसकर प्राणत्याग करता है। इस प्रकार के विषयवासना के कारण एक भवसे दूसरे भव में और दूसरे
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