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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
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प्रकार वैश्य लोगों में भी दिखाई पडती है, गहरी जड जमा कर बैठे हुए हैं, कुठे वहम, खोटे रीत-रिवाज, खोटे उडाउ खर्च, मिथ्या आडम्बर और उसी में अपनी अपनी जाति की बढाई समझने के उपरान्त देश की दुर्दशा या विनाश करनेवाली महा अनिष्ट इर्षा देखाई द्वेष और मत्सर आदि दुर्गुण बहुत मजबुत होकर स्वपर का विनाश करने को तैयार रहते हैं । ऐसे घातक दोषों को दूर करने और उनको जडमूल से नष्ट करने में अब अधिक बिलम्ब करने की क्या आवश्यकता है ? व तो कुम्भकरण की निद्रा से जगना ही जरूरी है । अन्यथा बहुत खेदकारक विनाशकाल दिनप्रतिदिन नजदीक आना ही संभव है । जगते को कोई भय नहीं होता - इस महावाक्य को वैश्यवर्ग को अत्र क्षण क्षणः स्मरण रखना चाहिये । 'बीती तांहि बिसार के, आगे की सुधि लेय' इसमें जितनी उपेक्षा होगी उतनो ही अधिक हानि होगी । समझदार को अधिक क्या कहें ।
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४६. क्षुद्र भक्ष अभक्ष जे भखे – जिसके भक्ष्याभक्ष्य का कोई नियम नहीं, जो पर जोवों के किमती प्राणों का नाश कर-कराकर राक्षसों के समान मांसभक्षण करते हैं, सुरापान करते हैं, मृगया के शोक में संख्याबंध जीवों का संहार करते हैं, कराते हैं और ऐसे अनर्थकारक कार्यों में तणिक कल्पित सुख-स्वार्थ के लिये असंख्य जीवहिंसा की कोई परवाह नहीं करते ऐसे नीच नादानजनों को ज्ञानी पुरुष शूद्रजनों की कोटि में गिनते हैं । उत्तम पुरुष तो स्वप्न में भी परजीव को कष्ट पहुंचाना नहीं चाहते। समझदार सज्जन पुरुष तो सभी के प्राणों को अपने प्राण के समान या उससे भी अधिक समझ कर अपने प्राण से भी परप्राण की अधिक रक्षा करते हैं । अतः वे मिथ्या
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मोजशोक के बशो
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