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प्रश्नोतररत्नमाळा
२४. उपादेय आतमगुण बंद, जाणो भविक महा सुख कंद-आत्मा के अनन्त गुणों का वृन्द अर्थात् समुदाय यह ही उपादेय अर्थात् आदरने-आराधने योग्य हैं । और यह हा आत्मा के लिये परम सुखकारी है । स्वगुगवृन्द की उपेक्षा कर और आत्मगुण के विरोधी अवगुणों का पोषण कर जीव अपने आपका स्वयं ही शत्रु बनता है । इसी से उसे संसारचक्र में अनन्तकाल पर्यन्त भटकना पड़ता है। ऐसी महाखेदकारक और गंभीर भूल सुधारे बिना उसका छुटकारा होना अशक्य है। उसके बिना वह खुद के आत्मा के ही सत्तागत रहे अनन्त सुख का प्रास्वाद-अनुभव नहीं कर सकता । अनन्तकाल से चली आती अपनी इस भूल को सुधार कर स्वदोष मात्र को जड़ से उखाड़ फैकने का यत्न करना अत्यन्त जरूरी है कि जिससे आत्मा के सत्तागत सकल गुणवृन्द आसानी से जागृत होकर प्रकाशित हो सके ।
२५. परमबोध मिथ्यागरोध-मिथ्याग अर्थात मिथ्यात्व-विपर्यय-विपरीत वासना, तत्त्व में अतत्त्वबुद्धि और अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि, गुण में दोषबुद्धि और दोष में गुणवुद्धि, हित में अहितबुद्धि और अहितमें हितबुद्धि, सुदेव में कुदेवबुद्धि और कुदेव में सुदेवबुद्धि, सुगुरु में कुगुरुबुद्धि और कुगुरु में सुगुरुवुद्धि, इसी प्रकार सुधर्म में कुधर्मबुद्धि
और कुधर्म में सुधर्मबुद्धि, ऐसी मिथ्यामति हो मिथ्यात्व कहलाता है । इसका रोध अर्थात् रोक करना ही परम बोध है । उपर लिखित मिथ्यात्व अनादि कुसंग के योग से उत्पन्न हुआ है । उसको रोकने के लिये आत्मार्थी जनों को सुसंग प्राप्त करना उचित है । महासमर्थ ज्ञानी पुरुषों के निष्पत्तपाती वचनों पर पूर्ण विश्वास किये बिना वह अनादि अनन्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com