________________
:: २७ ::
प्रश्नोत्तररत्नमाळा
३१. त्यागी अचल राज पद पावे-सद विवेकद्वारा तत्त्वातत्त्व का निश्चय कर जो सत्पुरुष तजने योग्य को तज देते हैं और आदरने योग्य को आदरलेते हैं। वे अन्त में अविचल मोक्ष पदवी को प्राप्त करते हैं । जिन कारणों के सेवन से जीव को नाहक भवभ्रमण कर अन्तदुःख सहने पड़ते हैं वे सब कारण त्याज्य हैं और जिन कारणों के सेवन से जीव सर्व कर्म बन्धनों से मुक्त हो कर अन्त में परमपद को प्राप्त करते हैं वे ग्रहण करने योग्य हैं। अर्थात् सर्व पापस्थान को समझ कर परित्याग करने योग्य हैं और वीतराग सर्वज्ञकथित सर्व गुणस्थान अनुकम से ग्रहण करने योग्य हैं । इस प्रकार विवेकयुक्त त्याग वैराग्य को सेवन करनेवाले अनुक्रम से अक्षयसुख को भोग सकते हैं । अपने अपने अधिकारानुसार धर्म साधन कर अनुक्रम से ऊंची सिढ़ी पर चढ़नेवाले सुखपूर्वक स्वउन्नति को साधकर अक्षय अबाधित सुख. को प्राप्त कर सकते हैं।
३२.जे लोभी ते रंक कहावे-यथायोग्य भोगसामग्री के प्राप्त होने पर भी जो लोभान्ध होकर अधिकाधिक की तृष्णा करते रहते हैं वे ही सचमुच दीन-दुःखी हैं और प्राप्त सामग्री में सन्तुष्ट रह कर जो प्रसन्नतापूर्वक परभव के लिये सत्साधन का सेवन करने को उद्योगवंत रहते हैं वे ही सचमुचसुखी हैं। “न तृष्णायाः परो व्याधिः, न तोषात् परमं सुखम्' यह महावाक्य उपरोक्त बात का समर्थक है । ऐसा समझ. कर समझदार व्यक्ति को संतोषवृत्ति धारण करना चाहिये।
३३. उत्तम गुणरागी गुणवंत, जे नर लहत भवोदधि अन्त-जो स्वयं सद्गुणी होते हुए भी दूसरे सद्गुणी का
रागी होता है वह पुरुष शिघ्र ही संसार का अन्त पा सकता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com