Book Title: Prashnottarmala
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Vardhaman Satya Niti Harshsuri Jain Granthmala

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Page 134
________________ प्रश्नोत्तरग्त्तमाळा भी नरकादिक के महान त्रासदायक दुःख की परंपरा उसको बहुत बार भोगनी पड़ती है । तिस पर भी मनुष्यजन्म में स्वपर हित साध लेने का सुवर्ण अवसर खो देनेपर उसे फिर से नहीं मिल सकता है । कदाचित बहुत समय पश्चात् अनेको कष्ट सहने पर उसे फिर से मनुष्य जन्म भी प्राप्त हो जाय तो भी सांढ के सदश स्वच्छन्दरूप से भोगित विषय भोग से पुष्ट हुई विषयवासना के फिर से जागृत होते ही वह जीव फिर से विषय वमल में पड़ जाता है । अतः जैसे तैसे समझदार प्राणी को उत्तम साधनद्वारा विषय पास से मुक्त हो कर निर्विकारपन प्राप्त करने का प्रबल पुरुषार्थ करना चाहिये। ४०. अविवेकी नर पशु समान-जिन में विवेक जागृत नही हुआ तथा जो विवेक रत्न प्राप्ति के लिये भरसक प्रयत्न नहीं करते वे मनुष्य होते हुए भी पशु तुल्य ही हैं। क्योकि आहार, भय, मैथुन और परिग्रहरूप चार संज्ञा तो दोनों के लिये समान हो है । जिससे कृत्याकृत्य, हिताहित, भक्ष्याभक्ष्य, पेयापेय के गुणदोष यथार्थरूप से समज में आसके ऐसा विवेक घर में प्रकट हो तब ही मनुव जन्म की सफलता है। पशु में प्रायः ऐसा विज्ञान हो ही नहीं सकता तब यदि मनुष्य चाहे तो बुद्धिबल से तत्वातत्त्व का विचार कर, निश्चय कर प्रतत्त्व को छोड़कर तत्व को ग्रहण कर सकते हैं। जो बुद्धिबल के प्राप्त होने पर भी उसका उपरोक्त लिखेअनुसार उपयोग नहीं कर नाना प्रकार की विषयवासनामों के पोषण के निमित्त ही उनका ऊलटा उपयोग करते हैं, तथा दुर्लभ मानवदेह, लक्ष्मी और वाणी का भी उसी प्रकार विपरीत उपयोग करते हैं, वे प्राप्त की हुई शुभ सामग्री को भी खो बैठते हैं कि जिस शुभ सामग्री Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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