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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
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उठाना ईस महावाक्य का मर्म भूल कर प्राप्त की हुई लक्ष्मी को केवल एश-श्राराम में ही उड़ा देना अथवा कृपणता दोष से उस पर खोटी ममता बुद्धि रखकर उसका कुछ भी सदुपयोग न करना इसे भी मूर्खता न कहें तो और क्या ? और जिहा पाकर दूसरों से प्रीति उत्पन्न हो ऐसे प्रिय एवं पथ्यवचन बोलना इस महावाक्य को भूला कर जैसे तैसे बकरींद करते रहना यह उन्मतत्ता नहीं तो और क्या ? इन ऊपर लिखे महावाक्य में ही बहुधा सब सार का समावेश है । जो इनका सार समझ कर उसके अनुसार व्यवहार करते हैं उनको संसारचक्र में अधिक काल तक नहीं भटकना पड़ता है । तत्त्व रहस्य समझ कर, तत्त्वश्रद्धा निश्चल रख कर जो तत्त्वरमणता करते हैं, अर्थात् जड़ चेतन को अच्छी प्रकार समझ कर स्वचेतन द्रव्य स्थित अनन्त अगाध शक्ति-सामर्थ्य की दृढ़ प्रतीति कर जो स्वआत्मा के ही सत्तागत रहनेवाली अनन्त अपार शक्ति को प्रकट करने की पवित्र बुद्धि से वीतराग वचनानुसार प्रवृत्ति करते हैं उन भाग्यशाली भव्यजनों को अधिक भवनमण नहीं करना पड़ता। किन्तु ऊपर लिखी रीति के विपरीत अपनी इच्छानुसार यश कीति की इच्छा से या गतानुगतिकता से दूसरे किसी प्रकार के बदले की इच्छा से दानादिक धर्मक्रिया करते हैं वे मूर्खजन आत्महित नहीं साध सकते, अत: मोक्षार्थीजनों को यदि कोई धर्मअनुष्ठान करना हो तो केवल आत्मकल्याण के लिये ही करना चोहिये, क्योंकि ऐसे पवित्र आत्मलक्ष्य से आत्मा निर्मल होती है और विपरीत लक्ष्य से आस्मा मलिन हो जाती है ऐसा समझ कर विवेकबुद्धि द्वारा विचार कर स्वहित आदरना चाहिये।
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