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प्रश्नोत्तर रत्नमाळा
सुख शाकिनी, निरममता अनुकूल, ममता शिव प्रतिकूल है, निरममता अनुकूल ॥
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३५. मन इन्द्रि जीते ते जति मन को और इन्द्रिय वर्ग को वश में कर वीतराग परमात्मा द्वारा आदेशित दश शिक्षा को अच्छी प्रकार समझ कर जो आराधना करते हैं वे ही सच्च यति हैं और इसके विपरीत आचरण कर अर्थात् मन और इन्द्रियों को स्वतंत्र छोड़ कर जो केवल स्वच्छन्दपन से आज्ञा विरुद्ध आचरण करते हैं वे तो केवल यति नाम को कलंकित करनेवाले हैं यह सच्च समझना । जो उत्तम प्रकार की दश शिक्षा सर्वज्ञ भगवान ने आत्मा के पेकान्त हित के लिये फरमाई है वे इस प्रकार हैं:
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१. क्षमागुण धारण कर सहनशील वनना. २. मृदुता - कोमलता धारण कर सद्गुणी प्रत्ये नम्रता धारण करना. ३. ऋजुता अर्थात् सरलता धारण कर निष्कपट वृत्ति रखना. ४. लोभ छोड़कर संतोषवृत्ति रखना ५. यथाशक्ति वाह्य अभ्यन्तर तप द्वारा आत्मविशुद्धि करना ६. संयम गुण द्वारा आत्मनिग्रह करना और सर्व जंतुओं को आत्म समान समझ कर किसी के प्रति प्रतिकूल आचरण कदापि नहीं करना. ७. प्रिय और पथ्य अर्थात् हितकारी सत्य भाषण करना. ८.. अन्यायाचरण छोड़कर प्रमाणिकपन से अर्थात् शुद्ध अन्तः करण से व्यवहार करना. ९. ममतादिक परिग्रह को अनर्थरूप समझ कर निर्धारीत कर निर्ममत्वपन - निःस्पृहपन धारण कग्ना. १०. मन, वचन और काया की पवित्रता कायम रख कर चाहे जैसे विषयभोग से विरक्त रहना । उक्त दश महाशिक्षा को यथार्थ रीति से अनुसरण करनेवाले यति जगत
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