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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
:: २० :: अत्यन्त हितकारक है। परन्तु ऐसी आत्मपरिणति तो परपुद्र्गालक वस्तु में अनादि अनन्तकाल से लगी हुई प्रोतिममता को छोड़ने पर ही जागृत हो सकती है। श्र.:. आत्मार्थी जनों को ऐसी पौदर्गालक प्रीति छोड़कर आत्मा के अंतरंग ज्ञानादिक गुणों से प्रीति जोड़ना योग्य है । जब तक जीव नकामी परवस्तुओं में ममता बुद्धि रखता है तब तक चाहे जितना काया कष्ठ सहे फिर भी वह उसकी आत्मा के लिये हितकारक सिद्ध नहीं हो सकता, किन्तु ममता बुद्धि के नष्ट होते ही शीघ्र ही उसकी सकल करणी उसकी आत्मा के लिये एकान्त हितकारक हो जाती है । अतः मुमुक्षु. जीवों को परवस्तुओं पर से ममता बुद्धि को हठाकर आत्मा के स्वाभाविक सद्गुणों में ही ममताबुद्धि रखना उचित है. और यह हो कर्त्तव्य है।
२३. स्वपरभाव ज्ञान कर ज्ञय-स्व अर्थात् आत्म द्रव्य और पर अर्थात् आत्मा सिवाय अन्य द्रव्य इनका जिस प्रकार यथार्थ ज्ञान हो तब तक ही अपनी शक्तिभर गुरुगम्य अभ्यास करना उचित है । श्रात्मा, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गल और काल ये छ द्रव्य उनके गुण पर्याययुक्त होते हैं । इनका विशेष अधिकार नवतत्त्वादिक ग्रंथों में पढ़िये । आत्मा चैतन्ययुक्त चेतन द्रव्य है जब कि शेष सब चैतन्य रहित जड़ द्रव्य है । उनको उनके गुणपर्याय युक्त अच्छीतरह से समझकर आत्मा के अनुपयोगी ऐसे पुद्गल प्रमुख परद्रव्यों से निवृत्त होना चाहिये । ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य सर्व द्रव्यों को जानकर तजने योग्य को तजना और श्रादरने योग्य को प्रादरना, यह ही उत्तम विवेक का फल है । शेष तोते के सदृश केवल मुखपाठ मात्र से तो
आत्मा का कहिये वरना वैसा नहीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com