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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
पूछिये, तामे धरिये रंग । चाते मिटे अबोधता, बोधरूप बहे रंग ॥ " जिससे राग, द्वेष और मोहादिक का ताप उपशमें
और उत्तम संयम का सेवन कर सहन शीतलता का अनुभव हो ऐसा प्रात्मज्ञान ही अत्यन्त हितकारक है।
७. प्रबल अज्ञान भ्रमण संसार--जिस प्रकार गदसरा विष्टा में रति मानता है, उसको वो ही प्रिय लगता है परन्तु दूसरी उत्तम वस्तु प्रिय नहीं लगती उसी प्रकार भवाभिनन्दी जीव को क्षुद्रता, तृष्णा, दीनता, मत्सर, भय, शठता, अज्ञता
और स्वच्छंदवृत्ति विगेरे दोषों के कारण जो दीर्घकाल तक संसार पर्यटन करना पड़ता है वह प्रिय लगता है, परन्तु सद्गुणों से जन्म-मरण के भय से मुक्त हो सकते हैं उनका प्रिय नहीं लगना भी प्रबल अज्ञानता का ही कारण है ।
८. चित्तनिरोध ते उत्तम ध्यानः-जब तक जीव को पंच विषयादिक प्रिय है तब तक चित्त का प्रवाह (व्यापार) उसी दिशा में बहता रहता है । आत्मा को अन्त में अनर्थकारी दिशा में बहते मन के प्रवाह को रोक कर एकान्त हित. कारी दिशा में उस प्रवाह को लगाना-लगाने का प्रयत्न करना उत्तम ध्यान कहलाता है। आतध्यान और रौद्र ध्यान के कारणों को टालकर धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान के कारणों के सेवन करने का आदर करना ही प्रारमा के लिये एकान्त हितकारी है । चित्त का वेग विषयादिक में बढ़ता रहे ऐसे बुरे कारणों के सेवन से बारंवार संक्लेश पेदा होता है। इसका सम्यग् विचार कर उन बुरे कारणों से होनेवाले संक्लेश को रोकने के लिये अरिहंतादिक पदों का स्वरूप समझ कर उनमें मन को लगाना और उसीमें तल्लीन होजाना ही आत्मा को एकान्त हितकारी है।Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com