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प्रश्नोत्तररत्नमाळा
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चार भावनात्रों का अन्तःकरण से आश्रय ग्रहण कर स्वपर. हित के लिये प्रवर्तन करना यह ही सच्चा पुण्य का मार्ग है । पूर्व महापुरुषोंने भी इसी को पुण्यमार्ग माना है और उपदेश किया है। स्वपर की उन्नति चाहनेवाले को इसी ही मार्ग का अवलम्बन करना योग्य है।
१६. परपीडा ते पाप वखान-क्रोधसे, मानसे, माया से या लोभ से राग-द्वेष के वशीभूत होकर, आत्मा का निकषाय-निर्मल स्वभाव भूल कर, परभाव में पड कर “सब जीवों को श्रात्म समान समझना " इस महावाक्य को भूला कर परजीवों को यथायोग्य सहायता देने के स्थान में ऊलटी पीडा पहुंचाने निमित्त मन से, वचन से, कायासे प्रवृत्ति करना, कराना या अनुमोदन करना, इसके समान दुसरा पापअन्यायाचरण क्या हो सकता है ? परभव में जीव को पाप के विरुवा विपाक भोगने पड़ते हैं । पापाचरण से ही जीव को नरक तिर्यंच गति में कंठिन दुःख की यातना सहनी पडती है। इसीसे भवभोरु जन ऐसे पापाचरण से सदैव दूर रहते हैं । सब को आत्मवत् समझ कर किसी भी जीव को किसी भी प्रकार का दुःख हो ऐसा कार्य कभी भी न तो स्वयं करते हैं, न करवाते हैं। जो बात खुद को प्रतिकूल दुःखकारी जान पडे उशे दूसरो पर नहीं अजमाना चाहिये । शान्त चित्त से यदि दूसरों की स्थिति का उचित विचार कर जाय तो उसे दुःख पहुंचाने की कभी इच्छा हो ही नहीं सकती । विना विवेक के जीव मिथ्या अहंता और ममता में बेभान होकर दूसरे को दुःख पहुंचाने के लिये उद्यत होजाता है और विवेकद्वारा स्वपर का यथार्थ भान हो जाने पर वह स्वपर के अहितकारी मार्ग से पिछा हठ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com