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किसी सूक्ष्म- जन्तु की हिंसा भी नहीं होती। स्वयं मयूरी के पंख भी पिच्छि के निमित्त उपादान नहीं हो सकते। एक जाति के युगल (दम्पति) में भी समान मृदुपिच्छ प्रसूत करने की क्षमता नहीं है। अन्यजातीय पक्षियों के लिए तो कहना व्यर्थ ही है। इन कारणों से मयूरपिच्छिधारण दिगम्बर-साधु की मुद्रा है। पिच्छी रखने से वह नग्नमुद्रा किसी प्रमादी की न होकर त्यागी का परिचय उपस्थित करती है। 'मुद्रा सर्वत्र मान्या स्यात् निर्मुद्रो नैव मन्यते' -नीतिसार की यह उक्ति सारगर्भित है। मुद्रा चाहे शासकवर्ग हो, धार्मिकवर्ग हो अथवा व्यापारवर्ग हो, सर्वत्र अपेक्षित होती है। मुद्रारहित की मान्यता नहीं। वैष्णवों, शाक्तमतानुयायियों, शैवों, राधास्वामी-साम्प्रदायिकों आदि में तिलक लगाने की पृथक्-पृथक् प्रणाली है। राजभृत्यों के कन्धों पर अथवा सामने वक्षःस्थल पर वस्त्रनिर्मित या धातुघटित मुद्रा (चिह्न) होती है, जिससे उसकी पद-प्रतिष्ठा जानी जाती है और राजभृत्यता की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। कागज के नोट मुद्रांकित होने से चलते हैं। डाक-तार विभाग मुद्रात्मक है। एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में प्रवेश पाने के लिए अनुमति-पत्र (पासपोर्ट) और रेलयात्रार्थ यात्रापत्र लेना आवश्यक है। इसलिए भी श्रमण-परम्परा के आदिकाल से अधिकृत-चिह्न के रूप में पिच्छि-कमण्डलु रखने का विधान चला आया है। 'भद्रबाहु-क्रियासार' में पिच्छि रखना आवश्यक बताते हुए कहा गया है कि “जो श्रमण पिच्छि नहीं रखता तथा उसकी निन्दा करता है, वह मूढचारित्र'' है।" क्योंकि चारित्रपालन में, कायोत्सर्ग में, गमनागमन में, बैठने-उठने में पिच्छि का सहयोग विदित है। अपेक्षासंयमी मुनि को अवधिज्ञान से पूर्व पिच्छि-धारण करना शास्त्रसम्मत है। मराठी-कवि जनार्दन ने त्यागियों के लिए लिखा है कि
करोनी परिग्रह-त्याग, तीन राखावे काये संग।
पुस्तक, पीछी, ठेवी अभंग कमण्डलभंग शौचासी।। 130।। अर्थात् परिग्रहों का त्याग करो और पुस्तक, पिच्छि और कमण्डलु को रखो। यहाँ 'पुस्तक' का अर्थ 'शास्त्र' है। वास्तव में शौच, संयम और ज्ञान के तीन उपकरण रखने मुनि को उचित हैं। आचार्य सकलकीर्ति ने 'मूलाचार' में सूचना दी है कि कार्तिकमास में स्वयंपतित पिच्छों से सत-प्रतिलेखन तैयार कर लेना चाहिए, यह लिंग है. योगियों का चिह्न है। जैसे शिशिर में वृक्षों के जीर्ण-पत्र स्वयं गिर जाते हैं, वैसे ही मयूरपंख कार्तिक में झड़ जाते हैं। अहिंसामहाव्रती जब किसी स्थान पर विराजमान होते हैं, तब इसी कोमलबालाग्र पिच्छि से बुहारकर बैठते हैं; इससे दृश्य-अदृश्य जीवाणु वहाँ से अन्यत्र कर दिये जाते हैं। दिगम्बर-सम्प्रदाय में मुनि, ऐलक, क्षुल्लक तथा आर्यिका मातायें पिच्छि-कमण्डलु धारण करते हैं। 'भद्रबाह-क्रियासार' में वर्णन है कि “वह सूरि पांच सौ शिष्यों-सहित अथवा चार, तीन, दो एक पिच्छिधारियों को साथ लेकर विहार करता है।" संघपति भी आचार्य का शिष्य होता है और आर्यिका पिच्छिधारण करती है। इसप्रकार पिच्छि रखने का निर्देश प्राचीन श्रमण-परम्परा से चला आया है। मयूरपंखनिर्मित पिच्छिधारी दिगम्बर का उल्लेख वैदिकों
- प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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