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करद-सामन्तों के रूप में निवास करते थे। सातवीं शती के उत्तरार्ध में उन्होंने शक्ति - संवर्द्धन प्रारम्भ किया और आठवीं शती के द्वितीय - पाद के प्रारम्भ के लगभग राष्ट्रकूट राजा 'दन्तिदुर्ग' एक शक्तिशाली राज्य की नींव डालने में सफल हुआ और आगामी 25-30 वर्षों में वह प्राय: सम्पूर्ण दक्षिणापथ का स्वामी बन बैठा । अवश्य ही उसने अपने पूर्व प्रभुओं, वातापी के चालुक्य-सम्राटों, की उत्तरोत्तर होने वाली अवनति का पूरा लाभ उठाया; अपितु उनके प्रभुत्व का अन्त करने में सक्रिय योग दिया और शनैः-शनै: उनके सम्पूर्ण साम्राज्य को हस्तगत कर लिया। तत्पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों -- कृष्ण - प्रथम अकालवर्ष (756772 ई०), गोविन्द-द्वितीय (772-779 ई०), ध्रुव-धारावर्ष-निरुपम श्रीवल्लभ (779-793 ई०) और गोविन्द-तृतीय जगतुंग प्रभूतवर्ष ( 793-814 ई०) ने अपनी सफल आक्रामक-नीति के फलस्वरूप दन्तिदुर्ग के उक्त राष्ट्रकूट राज्य को एक भारी - साम्राज्य के रूप में परिणत कर दिया, जिसका कि विस्तार सुदूरं दक्षिण में 'केरल' और 'काँची' - पर्यन्त था और उत्तर में मालवा-पर्यन्त, उत्तर-पश्चिम दिशा में प्राय: सम्पूर्ण गुजरात और राजस्थान के कुछ भाग उसके अंग बन गये थे और पूर्व में 'वेंगि' के पूर्वी - चालुक्य उसके करद- सामन्त बन गये
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। तदुपरान्त लगभग डेढ़ सौ वर्ष पर्यन्त यह विशाल राष्ट्रकूट - साम्राज्य अपनी शक्ति, वैभव एवं समृद्धि की चरमावस्था का उपयोग करता हुआ प्रायः अक्षुण्ण बना रहा। दसवीं `शती के तृतीय पाद के अन्त के लगभग वह अकस्मात् धराशायी हो गया।
अढ़ाई सौ वर्ष का यह काल दक्षिणापथ के इतिहास में 'राष्ट्रकूट-युग' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अपने समय के इस सर्वाधिक विस्तृत, वैभवशाली एवं शक्ति - सम्पन्न भारतीय - साम्राज्य के अधीश्वर इन राष्ट्रकूट- नरेशों की कीर्तिगाथा अरब - सौदागरों के द्वारा सुदूर मध्यएशियाई देशों तक पहुँची थी, जहाँ वे 'बलहरा' (वल्लभराय) के नाम से प्रसिद्ध हुए । राष्ट्रकूटों की इस महती-सफलता का श्रेय जहाँ अनुकूल परिस्थितियों, उनकी स्वयं की महत्वाकांक्षा, शौर्य और राजनीतिक पटुता को है; वहाँ उसका एक प्रमुख-कारण उनकी सामान्य-नीति भी थी । वे सुसभ्य और सुसंस्कृत भी थे, साहित्य और कला के प्रश्रयदाता थे और सबसे बड़ी बात यह कि वे पूर्णतया सर्वधर्म सहिष्णु थे। एलोरा के प्रख्यात गुहामन्दिरों का उत्खनन- कार्य कृष्ण- प्रथम के समय में प्रारम्भ हुआ, जिसमें शैव, जैन और बौद्ध-तीनों ही सम्प्रदायों ने योग दिया तथा उत्खनित - गुहा - स्थापत्य के अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किये। महानगरी मान्यखेट की नींव गोविन्द - तृतीय ने ही डाल दी थी और उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी सम्राट्-अमोघवर्ष प्रथम नृपतुंग - सर्ववर्म ( 815-877 ई०) ने उसका निर्माण करके और उसे अपनी राजधानी बनाकर उसे द्वितीय इन्द्रपुरी बना दिया था। साम्राज्य के विभिन्न भागों में जैनादि विभिन्न धर्मों के अनेक सुन्दर देवालय तथा धार्मिक, सांस्कृतिक एवं शिक्षा-संस्थान स्थापित हुए। इन धर्मायतनों एवं संस्थानों के निर्माण एवं संरक्षण में स्वयं इन सम्राटों ने, इनके सामन्त सरदारों और राजकीय अधिकारियों ने तथा समृद्ध प्रजाजनों
प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर 2001
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