Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 90
________________ वह जैन नहीं होता' क्योंकि वह मानता है कि मेरा कोई बिगाड़-सुधार कर ही नहीं सकता है, सभी अपनी करनी का ही फल पाते हैं। कहा भी है "स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा।।" अर्थ.— जीव जैसा कर्म करता है, उसी का फल पाता है। कोई एक-दूसरे को पुण्य-पाप का फल देने लगे तो अपना पुण्य पाप करना व्यर्थ हो जायेगा। विश्वमैत्रीभाव ___ अत: जैन विद्वान् का कोई दुश्मन नहीं होता और जिसका कोई दुश्मन होता, वह जैन विद्वान् नहीं होता। आचार्य कुंदकुंद ने कहा है णाणा जीवा णाणाकम्मं णाणाविहं हवे लद्धी। तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो।। -(नियमसार 156) अर्थ:- नानाप्रकार के जीव हैं, उनके नानाप्रकार के कर्म हैं, नानाप्रकार की लब्धि हैं, इसलिए स्वसमय, परसमय (साधर्मी, विधर्मी) के साथ वचन-विवाद वर्जनीय है। अत: परस्पर में जो मतभेद देखने में आते हैं, वे अनादि से होते आये हैं। किन्तु आपस में घृणा द्वेषभाव, विरोध, बहिष्कार को जैनधर्म में कहाँ स्थान है? ये तो अज्ञानियों का काम है, ज्ञानी को पर से उलझने का अवकाश ही कहाँ मिलता है? अज्ञानी जीव ही इन उलझनों में अपना समय और शक्ति व्यर्थ बर्बाद करता है; क्योंकि यह तो अधोगमन का खोटा-कार्य है। अत: यह जो आपस में कुछ विरोध दिख रहा है, यह ज्ञानवान् जैन-विद्वान् का कार्य तो हो ही नहीं सकता। जैनधर्म तो यह पाठ पढ़ाता है—"मित्ती मे सव्वभूदेस" जीवमात्र से मेरा मैत्रीभाव हो। किसी से भी बैरभाव न रहे। यह जैनधर्म और जैनत्व की पहिचान है। सच्चा जैन-विद्वान् अपना समय और अपनी शक्ति स्वपर-हित में लगायेगा या बर्बाद करने में लगायेगा? एक शायर ने कहा है आये थे फूल तोड़ने बागे-हयात में। दामन को खार-जार में उलझा के रहे गये।। आचार्य उमास्वामी ने कहा है“परात्मनिंदाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य ।” – (तत्त्वार्थ, 6/25) दूसरों की निंदा करना, अपनी प्रशंसा करना, अपने गुणों को प्रगट करना, दूसरों के गुणों को ढंकने से 'नीचगोत्रकर्म' का बंध होता है। वस्तुस्वरूप का निर्णायक नयज्ञान __ ज्ञानी-विद्वान् तो विशेष-ज्ञानी को देखकर प्रमुदित हो जाता है। आजकल आपस में जो विवाद चल रहा है, उसका कारण नयविभाग की अज्ञता है। जिनागम में कहीं निश्चयनय की प्रधानता से कथन है, तो कुछ (प्रथमानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोग) में 0088 प्राकृतविद्या- अक्तूबर-दिसम्बर '2001

Loading...

Page Navigation
1 ... 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124