Book Title: Prakrit Vidya 2001 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 102
________________ न्यायविनिश्चयविवरण' नामक वृत्ति के आधार पर अकलंकदेवप्रणीत मूलग्रंथ 'न्यायविनिश्चय' का स्वरूप-निर्माण कर दिया। और टीका-ग्रंथ का भी अत्यंत वैज्ञानिक रीति से सम्पादन किया। जैनदर्शन और न्याय के क्षेत्र में विद्ववर्य डॉ० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य ने अपनी सारस्वत लेखनी से जो योगदान किये, जैनसमाज और मनीषी-जगत् को उनकी कृतज्ञता ज्ञापित करने का भी अवसर नहीं मिला। ___ यद्यपि 'न्यायविनिश्चयविवरण' नामक इस कृति का किसी भाषांतर में अनुवाद इस संस्करण में नहीं था, फिर भी विद्वानों के बीच इसकी चर्चा और अपार-जिज्ञासा को देखकर 'भारतीय ज्ञानपीठ' के न्यासियों ने इसके प्रकाशन का निर्णय लिया; और गरिमापूर्वक इसे प्रकाशित कराया। प्रकाशन के बाद इसकी प्रतियाँ शीघ्र ही समाप्त हो गई, क्योंकि विद्वानों के मध्य इस ग्रंथ की बहुत ज्यादा माँग थी। अनुवाद नहीं होने के कारण सामान्य-जिज्ञासुओं के बीच यह ग्रंथ अधिक समादृत नहीं हो सका। फिर भी परवर्ती जिज्ञासु-मनीषियों ने 'भारतीय ज्ञानपीठ' के प्रबंधकों से यह माँग की हुई थी, कि बिना अनुवाद के ही सही, इसका द्वितीय संस्करण यथावत् प्रकाशित कराया जाये; ताकि विद्वान् तो अपनी जिज्ञासा की पूर्ति कर सकें। और अनुसंधानपरक कार्यों के लिये यह ग्रंथ उपलब्ध हो सके। ___ यह सौभाग्य की बात है कि भारतीय ज्ञानपीठ के न्यासियों ने विद्वानों की इस बात को आदर देते हुये इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित कराया है। यह संस्करण प्रत्येक जैन एवं जैनेतर जिज्ञासु, विद्वान् एवं साधु-संत को अवश्य पठनीय, मननीय एवं प्रभावनीय है। –सम्पादक (5) पुस्तक का नाम : महापुराण (भाग 1-5) लेखक : महाकवि पुष्पदन्त मूल-सम्पादन : डॉ० पी०एल० वैद्य हिन्दी-अनुवाद : (स्व०) डॉ० देवेन्द्र कुमार जैन, इन्दौर (म०प्र०) प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, लोदी रोड, नई दिल्ली-110003 संस्करण : द्वितीय, 2001 ई० पृष्ठ-संख्या : पक्की जिल्द, लगभग 546+491+568+298+456 पृष्ठ : 200+200+200+120+120=840 रुपये प्रत्येक दर्शन में अपने महापुरुषों के चरित्र-चित्रण के लिये पौराणिक-साहित्य की रचना हुई है। परन्तु जैनदर्शन के अतिरिक्त प्राय: अन्य सभी दर्शनों के पौराणिक-ग्रंथ संस्कृतभाषा में ही निबद्ध प्राप्त होते हैं। जैनपरम्परा के पुराण-ग्रंथ संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत एवं अपभ्रंश-भाषाओं में भी मिलते हैं, और साथ ही अनेकों दक्षिण-भारतीय-भाषाओं में भी जैनपुराण-ग्रंथ समय-समय पर लिखे गये हैं। इस प्रक्रिया से जहाँ जैन-परम्परा के मूल्य 00 100 प्राकृतविद्या+ अक्तूबर-दिसम्बर '2001

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