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प्रभावक-महापुरुषों का जीवन-चरित्र सभी के लिये सुलभ हो सका, वहीं इन विभिन्न-भाषाओं का साहित्य भी इन पुराण-ग्रंथों के द्वारा समृद्ध हुआ है। इतिहास, संस्कृति, दर्शन, तत्त्वज्ञान एवं विविध लोककलाओं, विद्याओं, ज्ञान-विज्ञान की सामग्री से समृद्ध इन पुराणों के द्वारा सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय ने अपनी समृद्धि के नये आयाम विकसित किये हैं। इस दृष्टि से ये पुराण सम्पूर्ण भारतीय साहित्य और संस्कृति के गौरव-ग्रंथ हैं। ___अपभ्रंशभाषा और इसका साहित्य प्राचीन एवं अर्वाचीन-भाषाओं और साहित्य के बीच एक ऐसा सेतु है, जिसका अवलम्बन किये बिना कोई भी मनीषी प्राचीन और अर्वाचीनभाषाओं और साहित्य के बारे में एकरूपता और समानता के तत्त्वों को नहीं खोज सकता है। अत: इस दृष्टि से अपभ्रंशभाषा का साहित्य एक अमूल्य-निधि के रूप में जाना जाता है। अपभ्रंशभाषा के साहित्यकारों में महाकवि पुष्पदंत का अन्यतम स्थान है, और उनके द्वारा रचित अनेक ग्रंथों में महापुराण' नामक यह कृति गुणों में तो महान् है ही, आकारप्रकार की दृष्टि से भी अति-विशाल है। ___ इस कृति का वैज्ञानिक-सम्पादन स्वनामधन्य भाषाविद् डॉ० पी०एल० वैद्य ने व्यापक अनुसंधान एवं समर्पणपूर्वक किया था। जिसका संतुलित हिन्दी-अनुवाद अपभ्रंशभाषा के मनीषी डॉ० देवेन्द्र कुमार जैन, इंदौरवालों ने करके इसे भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराया था। ___ भाषा एवं साहित्य के साथ-साथ दर्शन, संस्कृति, इतिहास एवं पुराण आदि के क्षेत्र में रुचि रखनेवाले जिज्ञासुओं के मध्य लम्बे समय से इस'ग्रंथ के द्वितीय संस्करण की आवश्यकता का अनुभव हो रहा था। चूँकि यह ग्रंथ शास्त्राकार पाँच विशाल खण्डों में था, अत: शीघ्रता से इसका पन:प्रकाशन संभव नहीं हो सका। विलम्ब से ही सही, इसका द्वितीय संस्करण भारतीय ज्ञानपीठ ने प्रकाशित कराया है, जो जिज्ञासुओं एवं विद्वानों के मध्य हाथोंहाथ ले लेने योग्य है। जैन धार्मिक श्रावकों-श्राविकाओं यतियों एवं आर्यिकाओं के लिये भी यह ग्रंथ अवश्य पठनीय है। आशा है वे सभी इसका लाभ निश्चितरूप से लेंगे।
इस अति-उपयोगी प्रकाशन के लिये 'भारतीय ज्ञानपीठ' हार्दिक अभिनन्दन एवं वर्धापन की पात्र है।
-सम्पादक
आगम में धर्मध्यान के स्वामी 'किं च कैश्चिच्च धर्मस्य चत्वार: स्वामिनः स्मृताः । सदृष्टयाधप्रमत्तात्ता वथायोग्चेव हेतुवा।।'
-(आचार्य कुन्दकुन्द, ज्ञानार्णव 26/28) अर्थ :- असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त इन चार गुणस्थानवी जीवों को उस धर्मध्यान के स्वामी माना है। .
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2001
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