________________
हिन्दी टीकाकार' नामक आलेख के लेखक आप हैं ।
पत्राचार - पता—महाजन टोली नं० 2, आरा-802301 (बिहार )
7. विद्यावारिधि डॉo महेन्द्र सागर प्रचंडिया - आप जैनविद्या के क्षेत्र में सुपरिचित हस्ताक्षर हैं, तथा नियमित रूप से लेखनकार्य करते रहते हैं । इस अंक में प्रकाशित 'आध्यात्मिक गीत' नामक कविता के रचयिता आप हैं ।
स्थायी पता—मंगल कलश, 394, सर्वोदय नगर, आगरा रोड़, अलीगढ़-202001 ( उ०प्र०) 8. राजमल जैन—आप जैन इतिहास एवं संस्कृति के गवेषी विद्वान् हैं। लोकैषणा से दूर रहकर इस वार्धक्य में भी स्वाध्याय एवं लेखन की वृत्ति अक्षुण्ण बनाये रखकर आप निस्पृह भाव से अद्वितीय समाजसेवा कर रहे है 1
इस अंक में प्रकाशित ‘केरली-संस्कृति में जैन-योगदान' आलेख आपके द्वारा रचित है। स्थायी पता— B-1/324, जनकपुरी, नई दिल्ली-110058
9. डॉ० राजेन्द्र कुमार बंसल – आप ओरियंटल पेपर मिल्स, अमलाई में कार्मिक अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुये, जैनसमाज के अच्छे स्वाध्यायी विद्वान् हैं। इस अंक में प्रकाशित 'प्राकृत-ग्रन्थों में जिनलिंगों का स्वरूप' शीर्षक आलेख आपकी लेखनी से प्रसूत है । पत्राचार- पता—बी०-369, ओ०पी०एम० कालोनी, अमलाई -484117 ( उ०प्र०)
10. डॉ० हुकमचन्द जैन—आप मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज०) में 'जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग' में रीडर पद पर कार्यरत हैं ।
इस अंक में प्रकाशित आलेख 'रयणचूडरायचरियं' में वर्णित नगर', आपके द्वारा रचित है। पत्राचार पता— जैनविद्या एवं प्राकृतविभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज० )
11. डॉ0 सुदीप जैन — श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में 'प्राकृतभाषा विभाग' में उपाचार्य एवं विभागाध्यक्ष हैं। तथा प्राकृतभाषा पाठ्यक्रम के संयोजक भी हैं। अनेकों पुस्तकों के लेखक, सम्पादक । प्रस्तुत पत्रिका के 'मानद सम्पादक' । इस अंक में प्रकाशित 'सम्पादकीय' शीर्षक आलेख एवं पुस्तक - समीक्षायें आपके द्वारा लिखित हैं 1 स्थायी पता—बी-32, छत्तरपुर एक्सटैंशन, नंदा फार्म के पीछे, नई दिल्ली-30
सिंहावलोकन - न्याय
आचार्य धरसेन गिरिनार पर्वत पर पुष्पदन्त - भूतबलि मुनिराज को उपदेश देते - "सिंहावलोगणणाएण । ” - ( आचार्य वीरसेन, छक्खंडागम, पुस्तक 13, पृ० 317 )
अर्थात् जिसप्रकार सिंह मृग का शिकार कर देता है और आगे जाने लगता है तो उस समय वह पीछे भी देखता जाता है कि कोई मृग पीछे और भी हो तो उसे भी पकड़ा जाये। वह अपने आगे भी देखता जाता है और दृष्टिपथ में आये मृगों को मारता भी है। इसीप्रकार जब एक ही सूत्र की प्रवृत्ति आगे और पीछे दोनों ओर हो तो उसे 'सिंहावलोगण' कहा जाता है ।
'आदिरंत्येन सहेता' के अनुसार भी 'हलन्त्यम्' – सूत्र में सिंहावलोकन - न्याय
है
प्राकृतविद्या— अक्तूबर-दिसम्बर 2001
1
00111